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बिरसा मुंडा उलगुलान आन्दोलन के क्रांतिदर्शी नेतृत्वकर्त्ता

  • अशोक ‘प्रवृद्ध’
    झारखण्ड के अमर स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिदर्शी बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 ईस्वी में राँची के उलीहातू गाँव में सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र के रूप में हुआ था, जिन्होंने न केवलब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रान्ति की बिगुल फूंक दी, बल्कि 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में उनके आह्वान पर जनजातीय समाज ने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ी। और महान उलगुलान आन्दोलन को अंजाम दिया। यही कारण है कि तेजपुंज बिरसा को आज भी मुंडा समाज व झारखण्ड के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।बिरसा का जीवन अत्यंत गरीबी में व्यतीत हुआ। बिरसा के माता-पिता घुमंतू खेती के द्वारा अपना गुजर-बसर करते थे।बचपन में बिरसा भेडों को चराने जंगल जाया करते थे। और वहां बांसुरी बजाया करते थे। बिरसा अच्छे बांसुरी वादक थे। बिरसा ने कद्दू से एक तार वाला वादक यंत्र तुइला का भी निर्माण किया था। 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली, तो बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। बिरसा ने लोगों को किसानों का शोषण करने वाले ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा भी दी।अवसर आते ही 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर बिरसा ने अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आन्दोलन शुरू कर दिया। जिसे देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लोगों की भीड़ जमा करने से रोका। परन्तु बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखला रहा हूँ। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। शीघ्र ही 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और दो वर्ष कारावास की सजा तय कर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में बंद कर दिया गया। लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। उन्होंने अपने इस निर्णय को, इस ठान को पूर्ण करने के लिए जी जान लगा दिया, और अनेकानेक प्रेरणाओं से लोगों के मन में स्वाधीनता की ज्योति जगा दी। बिरसा ने अपने अनेक जनकल्याण कारी कार्यों से अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का स्थान बना लिया था। और क्षेत्र के लोग उन्हें धरती बाबा के नाम से जानने , पुकारने व पूजने लगे थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के कारण पूरे इलाके के मुंडाओं व अन्य समाज के लोगों में अन्याय के विरुद्ध संगठित होने की चेतना जागी। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ जेल से छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार कार्य नहीं करेंगे। लेकिन बिरसा व उनके साथियों ने अंग्रेजों की इस चेतावनी को नजरंदाज कर अपने आंदोलनात्मक कार्य को जारी रखा।

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