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भारतीय समाज और संस्थाओं पर गंभीर खतरा

  • प्रणव पारे
    सोशल मीडिया के इस दौर में टीवी चैनलों पर होने वाली बहस अक्सर वायरल होती है और उसके विषय पर होने वाली बहस में आप ये देखकर अचरज में पड़ जाते है कि विरोध करने के नाम पर एक पक्ष विशेष कितना अतार्किक, कुतर्की और असिहष्णु हो जाता है और अपने पक्ष को साबित करने की जिद में प्रमाणों, तथ्यों को जो बिलकुल सामने स्वयं सिद्ध होते है, को सिरे से ख़ारिज करने पर आमादा हो जाता है। आप सोचते है कि शायद ये सत्ता में न होने कि कुंठा है या न्याय न मिलने से उपजा असंतोष है? या फिर ये किसी व्यक्ति विरोध से उपजी खीज हो सकती है तो आप सरासर गलत हैं। इस विरोध में ग्रेटा थनबर्ग वाली आक्रामकता है, भाव भंगिमा है और आप टीवी के सामने बैठे-बैठे ही रक्षात्मक हो जाते है तो आपको समझना होगा ये ‘केंसिल कल्चर’ की रणनीति का हिस्सा है। सत्तर के दशक में जो लोग भी मजदूर आंदोलनों से जुड़े हुए थे उन्हें याद होगा कि भारतीय मजदूर संघ के लिए कार्य करते समय भी इसी प्रकार के केंसिल -कल्चर का सामना करना पड़ता था। तब सरकारी नौकरियों में रिजेक्शन, प्रमोशन और वेतन वृद्धि रोकने के साथ-साथ सामजिक बहिष्कार जैसी स्थिति भी सामान्य थी जो कि इसी कैंसिल -कल्चर का हिस्सा हुआ करती थी।
    पिछले पांच से 10 वर्षों में पूरे विश्व मे इस तरह के विरोध प्रदर्शनों का चलन बढ़ रहा है। इसकी तह में जाने पर आपको बहुत चौकाने वाले तथ्य मिल सकते हैं जो साम्यवाद के क्रमिक विकास के भीतर छिपे हैं और जो खामोशी के साथ अपने डैने पसार रहे हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद वामपंथी बुद्धिजीवियों ने अब अपना नया ठिकाना संयुक्त राज्य अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में बनाया है।
    ‘आने वाले दिनों में डेमोग्राफिक चेंज’ संयुक्त राज्य अमेरिका की सबसे बड़ी चुनौती मानी जा सकती है। इसका एक अर्थ ये भी है कि जनसांख्यिकीय आंकड़ों और उनके सटीक आंकलन के बाद ही शायद वामपंथियों ने हॉवर्ड विश्वविद्यालय को अपना गढ़ बनाने का निर्णय लिया होगा। विभिन्न देशों से आने वाले अप्रवासी अपने साथ अपनी एथेनिक,धार्मिक,रंग और दूसरी मान्यताओं को भी साथ ले कर आ रहे हैं जैसे भारत से दलित उत्पीड़न और अफ्रीका से अश्वेत उत्पीड़न और रंग भेद ने अब घातक गठजोड़ का स्वरूप ग्रहण लिया है और अब वे जातीय उत्पीड़न को भारत जैसी ही मान्यता दिलाकर इंडियन एट्रोसिटी एक्ट जैसे कानूनों की मांग कर रहे हैं।
    सिलिकॉन वैली में भी ब्राम्हण बनाम दलित जैसे संघर्षों की पृष्ठ भूमि तैयार की जा रही है जिसके आधार पर मेरिटोक्रेसी को सिरे से ख़ारिज किया जा सके। वहीं हिंदू घृणा की पराकाष्ठा ये है कि हिन्दुओं को अपनी पहचान और मूल्यों के लिए अपनी हिन्दू पहचान को भविष्य में गुप्त रखने की आवश्यकता पड़ सकती है। इन सभी के लिए क्रिटिकल रेस थ्योरी और उसके आक्रामक केन्सिल-कल्चर ने अपना रंग दिखाना भी प्रांरभ कर दिया है।
    आश्चर्यजनक रूप से अमेरिकन वामपंथ जो कुछ दशक पहले ही हावर्ड विश्वविद्यालय से प्रारम्भ हुआ है ने अपनी पुरानी रेस थियोरी (नस्लवादी विभेद)को धार लगाने का काम किया है जिसे ‘क्रिटीकल रेस थियोरी’ के नाम से जाना जाता है और जिसका जिक्र बहुत से विद्वानों द्वारा हाल ही में किया गया है।
    कैंसिल -कल्चर इसी क्रिटिकल रेस -थ्योरी का एक बड़ा घटक है बल्कि इसके ग्राउंड-एक्सिक्यूशन का सबसे धारदार हथियार है जिसके पैटर्न को समझने के लिए आपको इसके साध्य को समझना बहुत आवश्यक है कि आखिर इससे हासिल क्या है? इससे किस प्रकार के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है?
    क्रिटिकल रेस थ्योरी के अनुसार समाज में ज्यादा से ज्यादा असंतुष्ट समूहों के निर्माण के लिए काम करना है, उदाहरण के लिए आप संयुक्त राज्य अमेरिका के फेडरल कानून को ही ले लें जिसमे नौ समूहों को विशेष रूप से संरक्षण दिया गया है ताकि उन्हें किसी भी तरह के भेदभाव इत्यादि से बचाया जा सके। इसमें सबसे पहले है जेंडर या लिंग, दूसरा है रेस या नस्ल और इसके बाद डिसेबिलिटी,रंग,राष्ट्रीयता,मत पंथ या संप्रदाय,धर्म और अनुवांशिकीय विशेषता और आयु। इन सभी विभिन्नताओं के बीच क्रिटिकल रेस थ्योरी की रणनीति यह है कि ज्यादा से ज्यादा ऐसे समूहों को चिन्हित किया जाए जिन्हे ये दावा करने के लिए उकसाया जा सके कि इतिहास में उनके साथ भी भेदभाव और दमन किया गया है। इन सभी समूहों को संगठित रूप से वर्तमान शासकीय और लोकतांत्रिक सामाजिक संस्थानों के साथ संघर्ष के लिए तैयार किया जाये ताकि सामाजिक संस्थाओं के ताने बाने को छिन्न-भिन्न कर एक नए सोशल आर्डर की स्थापना की जा सके।
    राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में इस क्रिटिकल रेस थ्योरी काे स्थापित करने का पुरजोर प्रयास देखने को मिलता है वहीं उनके द्वारा पिछले दिनों लंदन और हावर्ड यूनिवर्सिटी की यात्रा को इसी तारतम्य में देखे जाने की आवश्यकता है और अभी इस लेख को लिखते समय भी वे किसी विदेशी भूमि पर मुस्लिम समुदाय पर हो रहे हमलों का जिक्र करते नज़र आ रहे है। इस रणनीति के तहत भारत देश में इसके लिए अपार सम्भावनाएं विद्यमान हैं। हाल ही में आपने किसान आंदोलन देखा, शाहीन बाग का धरना भी देखा और आपने बिलकुल अभी जंतर मंतर पर पहलवानों का ड्रामा देखा है। भारतीय संसद के नए भवन के उद्घाटन में महिला आदिवासी राष्ट्रपति को मोहरा बनाकर आदिवासी समुदाय को भड़काने का प्रयास भी देखा है।
    यही नहीं आप खालिस्तान समर्थकों के विदेशों में होने वाले प्रदर्शन देखिये, भारतीय दूतावास के राष्ट्रीय ध्वज को उतारना आप भूले नहीं होंगे? आप ये भी नहीं भूले होंगे कि पंजाब के तथाकथित सिख संत अमृतपाल को किस प्रकार हिंसा भड़काने के लिए प्रोजेक्ट किया गया था और अमृतपाल द्वारा हिंसा को उकसाने के लिए प्रदर्शनकारी भीड़ के साथ धर्मग्रंथ को सम्मिलित किया जाना कोई सतही सोच नहीं थी बल्कि ये योजना किसी हार्डकोर प्रशिक्षित काडर की थी जिस पर गंभीरता पूर्वक विचार की आवश्यकता है।

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