श्रीपादावधूत स्वामी। आज से लगभग 263 वर्ष पूर्व हरियाणा के पानीपत पर सवा लाख से ज्यादा सैनिक भूखे थे। पिछले 1 महीने से उन्हें पेट भर खाना नहीं मिल रहा था। साथ ही उत्तर भारत की हड्डियों को कंपकंपा कर गलाने वाली ठंड का सामना करने वाले गर्म कपड़े भी नहीं थे क्योंकि ये सैनिक जिस प्रदेश से आए थे वहां पर इतनी ठंड नहीं पड़ती थी। ऐसी विषम परिस्थिति में भी मकर संक्रांति के दिन एक भयानक और भीषण लड़ाई की शुरुआत हुई और इन सैनिकों ने प्राणप्रण से शत्रु को पराजित करने के लिए युद्ध करना आरंभ कर दिया।
कौन थे यह लोग?
ये मराठे थे। वही मराठे जिन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य की स्थापना में अपना तन मन और धन अपना सर्वस्व समर्पित किया था। अपनी हिंदू अस्मिता और मां भारती और मां भवानी की अर्चना में प्राण प्रण से योगदान दिया था। कहने को तो अनेक जाति के मराठे थे इसमें पाटिल, देशमुख, चितपावन ब्राह्मण, धनगर, देशस्थ कराडे ब्राह्मण, कुनबी, कोली, लोहार, सिकलीगर, भिश्ती, चर्मकार, महार, माली, बंजारी और अनेक जातियां थी। कुछ मुसलमान भी थे। इन सब को मराठे कहते थे।
मराठा यह शब्द उस समय की परिस्थिति में सकल हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता था इसलिए इस मराठा शब्द को वर्तमान समय के जातिवाचक संज्ञा से मत तुलना कीजिए। उस समय मां भारती की रक्षा के लिए लड़ने वाला प्रत्येक मावला हिंदू ही था। उस मकर संक्रांति के दिन संपूर्ण महाराष्ट्र एकजुट होकर मराठा बन कर लड़ा था।
इनके साथ तेलंगाना, कर्नाटक और मध्य प्रांत के भी अनेक वीर योद्धा लड़े थे। बुराड़ी के घाट पर दत्ता जी सिंधिया का जो बलिदान हुआ था। यह घटना पुणे के नाना साहब पेशवा के मन में चुभ गई थी। पेशवा के नेतृत्व में लड़ने के लिए होलकर, शिंदे, गायकवाड, भोसले सभी तैयार थे। इस युद्ध मैं लड़ने वाले सभी सैनिक विभिन्न जातियों के थे लेकिन वह सब हिन्दू ही थे, मराठा सैनिक थे इसमें कहीं कोई संदेह नहीं था।
हिंदवी स्वराज्य के लिए लड़ने वाले सभी सैनिकों के लिए यह युद्ध केवल उनके उदर निर्वाह के लिए किया जाने वाला प्रयत्न या प्रयास नहीं था। उनके लिए छत्रपति शिवाजी महाराज दास्यता मुक्त स्वतंत्रता की प्रेरणा को अक्षुण्ण रखने की अस्मिता का भाव था अपने एक साथी के बलिदान का प्रतिशोध लेने की उत्कट भावना थी इसीलिए सभी मराठा बांधव प्राण प्रण से लड़ें थे। सभी इस देश की रक्षा के लिए इस देश पर आपन्न विदेशी आक्रमण से लड़ने के लिए ही महाराष्ट्र से सुदूर उत्तर भारत के पानीपत पर आए थे। इस युद्ध को लड़ने का उद्देश्य साम्राज्यवादी विस्तार नहीं था इसमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं है।
14 जनवरी 1761 को युद्ध लड़ते हुए जितने भी बलिदान हुए वे सब मराठा थे जो कैदी पकड़ लिए गए उन्हें बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया वह आज भी मराठा बुगती या मराठा मारी के नाम से जाने जाते हैं । उनकी जातियां आज विलीन हो गई है। जातियां तो क्या उनका धर्म भी विलीन हो गया है लेकिन आज भी मराठा यह पहचान कायम है। पानीपत के इस युद्ध को पानीपत का तीसरा युद्ध कहा जाता है और इस लड़ाई को इतिहास में यह कह कर के संबोधित किया जाता है कि यह युद्ध मराठे बुरी तरह से हार गए थे। परंतु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। मराठा युद्ध हारे जरूर थे लेकिन उनकी हार हार नहीं थी क्योंकि अब्दाली ने कहने को युद्ध जीता था लेकिन उसका इतना नुकसान हो गया था कि वह कभी भारत पर अपना शासन कायम न कर सका।
नाना साहब पेशवा को लिखे गए पत्र में अब्दाली अपने अफगान पुराणों के नायक रुस्तम और इस्पिंदियार (अपने कृष्ण और अर्जुन जैसे) के रूप में मराठी हुतात्मा वीरों को नवाजता है। युद्ध के 3 महीने बाद ही वह मराठों से संधि कर हमेशा के लिए अफगानिस्तान वापस लौट गया। इस युद्ध के पश्चात वायव्य सरहद सीमा क्षेत्र से कोई भी विदेशी आक्रांता हिंदुस्तान की सीमा में प्रवेश नहीं कर पाया और ईसा पूर्व 327 में अलेक्जेंडर द्वारा खोले गए हिंदुस्तान के प्रवेश द्वार खैबर और गोलन दर्रे को पुरुषार्थी मराठों ने अपने लहू से अपने बलिदान से बंद कर दिया। इस युद्ध के पश्चात कोई भी विदेशी आक्रांता भारत की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं उठा सका आक्रमण करना तो दूर की बात रही।
पानीपत के सिर्फ 10 वर्षों के बाद ही महादजी सिंधिया ने नजीब खान की जो कबर थी उसे खोद कर नष्ट भ्रष्ट कर दिया। और दिल्ली पर फिर से मराठों का आधिपत्य हो गया था। पानीपत के इस युद्ध के 30/35 वर्षों के बाद भी मराठे मराठे बनकर ही लड़े और विजयी भी हुए। युद्ध तभी होता है जब दो अलग-अलग साम्राज्यों विचारधाराओं में अपने-अपने हितों के लिए टकराव होता है और यही टकराव एक बड़े युद्ध का कारण बनता है। उस समय भारत की परिस्थिति को देखते हुए यही एक विचार मराठों का था जो छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य के दिशानिर्देशों के अनुरूप था। देश व धर्म पर आक्रमण करने वाले सारे आतंकवादी होते हैं और इनका प्रतिकार होना ही चाहिए इसी बात को लेकर मराठे पानीपत का युद्ध लड़ने गए थे।
परंतु दुर्भाग्य से आज हम सब लोग अपनी पहचान को भूल रहे हैं और केवल जाति संप्रदायों में विभक्त होकर रह गए हैं। आज हमारे सामने राष्ट्र बोध राष्ट्रवाद यह पहचान नहीं है । हम केवल और केवल जाति को ही आधार मानकर धर्म को ही आधार मानकर स्वयं को ब्राह्मण मराठा दलित ओबीसी और फलाना ढिकाना के नाम से अपनी अस्मिता को ढूंढने का प्रयत्न कर रहे हैं।
इस मकर संक्रांति के अवसर पर जब हम सारे हिंदू बांधव एक दूसरे को तिल और गुड़ देकर शुभकामनाएं देंगे। तब सैकड़ों वर्ष पूर्व हड्डियों को कंपकंपाने वाली ठंड में भूखे प्यासे रहकर देश की अखंडता और अस्मिता की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले अपने रक्त से इस भारत भू का अभिसिंचन करने वाले उन लाखों लाख मराठा सैनिकों के बलिदान को याद अवश्य रखिएगा क्योंकि उस दिन बलिदान देने वाला हर सैनिक वहां मराठा के रूप में ही गया था और मराठा के रूप में ही उसने अपना बलिदान दिया था।
( पूरे आलेख में मराठा शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है मराठा शब्द उस समय की परिस्थिति में संपूर्ण हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता था इसलिए इस मराठा गुणवाचक शब्द को वर्तमान समय के जातिवाचक संज्ञा से तुलना मत कीजिए। उस समय विदेशी आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ने वाला प्रत्येक मावळा हिंदू था।)