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- कोर्ट ने कहा लिव-इन रिलेशनशिप अभी तक कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त नहीं हैं।
- शादी एक सामाजिक संस्था है जिसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है, यह सामाजिक और नैतिक आदर्शों को दर्शाता है।
नई दिल्ली, केरल हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर अपनी टिप्पणी में कहा कि इसे शादी के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती है। केरल हाईकोर्ट ने कहा कि कानून लिव-इन रिलेशनशिप को शादी के रूप में मान्यता नहीं देता है। अदालत ने कहा कि जब दो व्यक्ति केवल एक समझौते के आधार पर एक साथ रहने का फैसला करते हैं तो वे किसी विवाह अधिनियम के दायरे में आते हैं। लिव-इन रिलेशनशिप का मतलब शादी होना नहीं होता है न ही इसमें तलाक की मांग की जा सकती हैं।
कानून नहीं मानता लिव-इन रिलेशनशिप को शादी
जस्टिस ए मोहम्मद मुस्ताक और सोफी थॉमस की खंडपीठ ने लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में यह टिप्पणी तब कि जब लिव-इन में रहने वाले याचिकार्ता कपल ने तलाक की अर्जी लगाई। न्यायाधीशों ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप अभी तक कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त नहीं हैं। अदालत ने कहा कि विवाह एक सामाजिक संस्था है जिसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है और यह समाज में सामाजिक और नैतिक आदर्शों को दर्शाता है। हाई कोर्ट ने कहा कि तलाक कानूनी शादी को अलग करने का एक जरिया मात्र है। लिव-इन रिलेशनशिप इस तरह की मान्यता नहीं दी जा सकती है। हाई कोर्ट की बेंच ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले अलग-अलग धर्मों के जोड़े की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की है। याचिकाकर्ताओं में एक हिंदू और एक अन्य ईसाई हैं, जिन्होंने साल 2006 में एक पंजीकृत माध्यम से एक पति और पत्नी के रूप में एक साथ रहने का फैसला किया। रिश्ते के दौरान दंपति का एक बच्चा भी था। लेकिन अब यह जोड़ा अपने रिश्ते को खत्म करना चाहता है। इस प्रक्रिया के तहत जोड़े ने विशेष विवाह अधिनियम के तहत आपसी तलाक के लिए एक संयुक्त याचिका के साथ फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। लेकिन अदालत ने उन्हें इस आधार पर तलाक देने से इनकार कर दिया कि उक्त अधिनियम के तहत उनकी शादी नहीं हुई थी। नतीजतन, याचिकाकर्ताओं ने उच्च न्यायालय का रुख किया।
याचिकाकर्ताओं के वकील का दावा
याचिकाकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया था कि जब दोनों पक्षों ने घोषणा के माध्यम से अपने रिश्ते को विवाह के रूप में स्वीकार कर लिया था, तो अदालत यह तय नहीं कर सकती कि वे कानूनी रूप से विवाहित हैं या नहीं। उच्च न्यायालय ने कहा कि जब दो पक्ष केवल एक समझौते के माध्यम से एक साथ रहने का फैसला करते हैं, न कि किसी व्यक्तिगत कानून या विशेष विवाह अधिनियम के अनुसार, तो वे इसे विवाह होने का दावा नहीं कर सकते और न ही इस सिलसिले में तलाक ही ले सकते हैं।