कंगाली की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने पहली बार यह खुलकर स्वीकार किया कि “उनके देश को भारत के साथ जम्मू-कश्मीर सहित अन्य मुद्दों पर बातचीत करनी चाहिए। पाकिस्तान ने भारत के साथ तीन युद्ध लड़े और इनसे सिर्फ गरीबी और भुखमरी मिली”। यह सच पाकिस्तान का लगभग प्रत्येक नेता और नागरिक जानता है कि भारत के साथ कटुतापूर्ण संबंध रखने से उनका भारी नुकसान हो हुआ है। यदि भारत के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए होते तब न तो पाकिस्तान का दीवाला निकलता और न ही उसे दुनिया के सामने आर्थिक सहायता के लिए हाथ पसारने पड़ते। कट्टरपंथी समूहों की जहरीली सोच और नेताओं की सत्ता की भूख ने पाकिस्तान की राजनीति को ऐसा स्वरूप दे दिया कि ‘भारत विरोध’ पाकिस्तान का स्थायी चरित्र बन गया। नेताओं को सत्ता चाहिए तो उन्हें भारत के विरुद्ध जहर उगलना पड़ता है। कट्टरपंथी समूहों का विश्वास जीतने के लिए भारत को सब प्रकार से लक्षित करना पड़ता है। जिस भी नेता ने भारत के साथ संबंध सुधारने की बात की या प्रयास किए, उसे न केवल पाकिस्तान की सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि अपने जीवन को भी संकट में डालना पड़ा है। यही कारण है कि बयान देने के कुछ ही घंटों बाद ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ के कार्यालय से स्पष्टीकरण जारी हो जाता है। उन्हें अपने बयान से पलटी मारनी पड़ती है। उनकी ओर से कहा जाता है कि प्रधानमंत्री शरीफ के बयान को गलत ढंग से दिखाया जा रहा है। पाकिस्तान, भारत के साथ तब ही बातचीत करेगा, जब भारत जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 एवं 35ए लागू कर दे। बहुत सीधे तौर पर देखें तो शाहबाज को राजनीतिक नुकसान होने का डर सताने लगा होगा। शाहबाज को लगा कि इमरान और तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी धड़े उनका वही हश्र कर सकते हैं जो उनके भाई नवाज शरीफ का हुआ था। शाहबाज अपने बेटे हमजा को फिर पंजाब राज्य का मुख्यमंत्री बनाने का सपना देख रहे हैं। जाहिर है वो भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाकर सियासी खुदकुशी करने का रिस्क नहीं लेना चाहते। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह जिया-उल-हक ने कश्मीर को गले की नस बताया था। जुल्फिकार अली भुट्टो के दौर से ही पाकिस्तान में सियासी बुनियाद भारत से दुश्मनी रही। नवाज शरीफ ने जब मोदी सरकार से रिश्ते सुधारने की कोशिश की तो उन्हें इमरान खान ने गद्दार करार दिया। मोदी खुद नवाज की पोती की शादी में अचानक पाकिस्तान पहुंच गए थे। कहने का आशय यह है कि जब भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों ने भारत से संबंध सुधारने की कोशिश की है, उन्हें अपनी सत्ता गंवानी पड़ी है। जब तक पाकिस्तान के नेता इस भय से बाहर नहीं निकलेंगे और जनता का साथ कट्टपंथियों की जगह लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा रखनेवाले नेताओं को नहीं मिलेगा, तब तक कोई भी पाकिस्तानी नेता भारत से संबंध सुधारने की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता है। सच स्वीकार करने के लिए पाकिस्तान को साहसी नेता चाहिए।
