बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की दिल्ली यात्रा के साथ ही एक बार फिर विपक्षी दलों की एकता की चर्चाएं जोर पकड़ने लगी हैं। हालांकि राजनीतिक गलियारों में चर्चा यह भी है कि विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? क्या एक-दूसरे के धुर विरोधी दल राजनीतिक दल भी एकसाथ आएंगे? और यदि सब एक साथ आ भी गए तो एकसाथ टिकेंगे कैसे? क्योंकि पिछले दिनों अडानी के मामले में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार और स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर राहुल गांधी की ओर की जा रही अपमानजनक टिप्पणियों के विरोध में शिवसेना के तेवर देखकर यही प्रतीत होता है कि कांग्रेस के नेताओं को अपने जुबान पर नियंत्रण करना होगा, अन्यथा विपक्षी एकता की कोशिशें परवान चढ़ने से पहले ही धराशाही हो जाएंगी। अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस को यह समझ आ गया है कि वह अपने बूते भाजपा का सामना नहीं कर पाएगी। इसलिए अपना अहंकार छोड़कर वह विपक्षी एकता पर जोर दे रही है। बीते दिनों कांग्रेस की प्रमुख नेता सोनिया गांधी ने एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित अपने लेख में इस बात को रेखांकित किया कि कांग्रेस समान विचारों वाले दलों के साथ मिलकर चलने को प्रतिबद्ध है। ध्यान रहे, नीतीश कुमार कई महीनों से विपक्षी एकता सुनिश्चित करने के प्रयासों में लगे थे, लेकिन कुछ बाधाओं के चलते उनके प्रयास कारगर ढंग से आगे नहीं बढ़ पाए। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि के चंद्रशेखर राव के बीआरएस, ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की दिलचस्पी कांग्रेस को विपक्षी पार्टियों के मोर्चे से बाहर रखने में दिख रही थी। वहीं, नीतीश कुमार का मानना था कि कांग्रेस को शामिल किए बगैर विपक्षी एकता का कोई मतलब नहीं बनता। वहीं, नीतीश कुमार की उदासीनता की बड़ी वजह यह थी कि खुद कांग्रेस नेता भी उनके प्रयासों को वैसी तवज्जो नहीं दे रहे थे, जैसी उन्हें अपेक्षा थी। बहरहाल, परदे के पीछे चली गतिविधियों का ही परिणाम कहिए कि विपक्षी दलों की आपसी समझ फिर से दिखने लगी। न केवल तृणमूल और आम आदमी पार्टी जैसे दल कांग्रेस के नजदीक आए हैं बल्कि इन सबसे खुद को अलग करते पटना में बैठे नीतीश कुमार भी दोबारा सक्रिय हुए। मंगलवार को दिल्ली आकर पहले वह राजद नेता लालू प्रसाद से मिले और बुधवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से बात की और आआपा के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात की। राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा आम है कि ये सब विपक्षी दल भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही कड़ी कार्रवाई के भय से भी एकसाथ आने को मजबूत हुए हैं। वरना कुछ समय पहले तक तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अपनी ही राह आगे बढ़ रहे थे। वे कांग्रेस से अलग चलकर स्वयं के राजनीतिक कद को कहीं अधिक बड़ा दिखाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन जैसे ही आआपा के बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले में कार्रवाई हुईं, वह कांग्रेस के साथ अपना विरोध भूलकर साझे विपक्ष के खेमे में शामिल होने लगी। हालांकि, ऐसा लगता नहीं है कि अपने निहित स्वार्थों के चलते एकजुट हो रहे विपक्षी दल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को 2024 में सत्ता में वापसी करने से रोक पाएंगे या कोई प्रभावी छाप छोड़ पाएंगे? क्योंकि कांग्रेस के साथ आ रहे दलों की स्थिति ऐसी है कि आज वे अपने प्रभाववाले क्षेत्र में ही प्रभावी भूमिका में नहीं हैं, तब दूसरे राज्यों में एक-दूसरे की क्या ही सहायता कर पाएंगे? याद हो कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व भी विपक्षी राजनीतिक दलों ने एकजुटता का संदेश दिया था लेकिन परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’ रहा। दरअसल, कोई भी मोर्चा या गठबंधन तब सफल होता है, जब उसकी नीयत पर जनता को विश्वास हो।
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