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विरासत को मिटाया नहीं, अपितु समृद्ध किया

नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय का नाम अधिकृत तौर पर प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय किए जाने से कांग्रेस की ओर से आ रही तीखी प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि उन्हें देश के बाकी प्रधानमंत्रियों की विरासत को सहेजने का यह अभिनव विचार पसंद नहीं आया है। ज्यादातर कांग्रेसी इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत को मिटानेवाला काम बता रहे हैं, जबकि सत्य यह नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की विरासत को सहेजने के साथ ही भारत निर्माण में अपना योगदान देनेवाले अन्य प्रधानमंत्रियों की स्मृतियों को सहेज कर केंद्र सरकार ने इस संग्रहालय को समृद्ध ही किया है। उस संग्रहालय से पंडित नेहरू से संबंधित किसी भी सामग्री को हटाया नहीं गया है, अपितु जोड़ा ही है। आश्चर्य है कि कथित तौर पर ‘भारत जोड़ने’ की बातें करनेवाले कांग्रेसी नेता भी सही अर्थों में ‘भारत जोड़ने’ के इस प्रयोग को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। कांग्रेसी यह भी कह रहे हैं कि हमारा विरोध भारत के प्रधानमंत्रियों पर केंद्रित संग्रहालय के विचार से नहीं है, इसका निर्माण अन्यत्र भी किया जा सकता था। परंतु ये कांग्रेसी यह नहीं बता रहे कि उन्होंने नेहरू परिवार के अलावा भारत के अन्य प्रधानमंत्रियों की विरासत को सहेजने के लिए क्या किया है? दरअसल, नेहरू परिवार और उसके प्रति स्वामी भक्ति रखनेवाले कांग्रेसी सदैव से यह सिद्ध करने का प्रयास करते रहे हैं कि स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर बाद तक भारत के निर्माण में केवल नेहरू परिवार का ही योगदान है। इसलिए कांग्रेस के नेताओं को अक्सर यह कहते सुना जा सकता है कि पंडित नेहरू ने आईआईटी बनवाए, इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, राजीव गांधी देश में कम्प्युटर लेकर आए। इस कड़ी में लाल बहादुर शास्त्री और नरसिंह राव का नाम अकसर गायब रहता है। गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के योगदान की चर्चा तो बहुत दूर की बात है। उन महान लोगों को तो श्रेय मिलता ही नहीं है, जो वास्तव में इन प्रयासों की नींव में होते हैं। बहरहाल, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय प्रारंभ से पंडित जवाहरलाल नेहरू का पुस्तैनी घर नहीं रहा। वह भारत के प्रधानमंत्री का आवास था। पंडित नेहरू भी भारत के प्रधानमंत्री के नाते इस भवन में रहे। इसलिए भी इस संस्थान का नामकरण प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय किया जाना उचित ही है। यदि नेहरू परिवार की विरासतवादी मानसिकता का प्रभुत्व कांग्रेस में नहीं होता, तो यह स्थान स्वाभाविक रूप से भारत के प्रधानमंत्रियों को समर्पित रहता। उल्लेखनीय है कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए लाल बहादुर शास्त्री का नाम सामने आया, तब इंदिरा गांधी के नाम को भी नेहरूजी की उत्तराधिकारी के तौर पर आगे बढ़ाया गया। परंतु 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी पुस्तक ‘सत्ता के गलियारों से’ में लिखा है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद शास्त्री ने तीन मूर्ति भवन को अपना निवास बनाने का विचार किया लेकिन इंदिरा गांधी के कारण वे इस भवन में रहने का साहस नहीं जुटा पाए। चूँकि यह भवन भारत के प्रधानमंत्री के आवास के तौर पर चुना गया था इसलिए 9 अगस्त 1964 को केंद्रीय कैबिनेट ने निर्णय लिया कि त्रिमूर्ति भवन में एक बार फिर से भारत के प्रधानमंत्री को रहना चाहिए। कैबिनेट का यह निर्णय इंदिरा गांधी को पसंद नहीं आया। उन्होंने अपने समर्थकों के साथ मिलकर इसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने का प्रस्ताव दे डाला। उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को जिस तरह का पत्र लिखा, उसके बाद संकोची स्वभाव के शास्त्री जी ने त्रिमूर्ति भवन में रहने का विचार पूरी तरह से त्याग दिया। अगस्त 1964 में कांग्रेस ने नेहरू मेमोरियल फंड की स्थापना की। राष्ट्रपति और इंदिरा गांधी को क्रमशः अध्यक्ष और सचिव नियुक्त किया गया। इस भवन को लेकर बाद में मेनिका गांधी और सोनिया गांधी के बीच भी जमकर खींचतान चली। मेनका गांधी भी इस राष्ट्रीय स्मारक को नेहरू परिवार के प्रभुत्व से मुक्त कराना चाहती थीं। जब वे संस्कृति मंत्री थीं, तब उन्होंने सोनिया गांधी को इसके अध्यक्ष पद से हटा दिया था। कुल मिलाकर नेहरू परिवार ने सदैव अपनी विरासत को सहेजने के लिए त्रिमूर्ति भवन पर अपना अधिपत्य जमाने का प्रयास किया। परंतु अब जो निर्णय हुआ है, उससे यह राष्ट्रीय स्मारक परिवारवादी मानसिकता से मुक्त होगा। भारत के प्रधानमंत्री के आवास के लिए चिह्नित किया गया त्रिमूर्ति भवन अब पुन: भारत के प्रधानमंत्रियों को समर्पित हो गया है।

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