महाराष्ट्र में चल रही राजनीतिक उठा-पटक यह बताती है कि ‘परिवारवाद’ किसी भी राजनीतिक दल को पतन की ओर ले जा सकता है। सत्ता की खातिर बने शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा के बेमेल गठजोड़ का बिखरना तो तय ही है, सबसे बड़ा संकट शिवसेना के सामने है। शिवसेना इस झटके से उबर पायेगी या हमेशा के लिए अप्रासंगिक हो जाएगी, यही मुख्य प्रश्न है। बीते दिन फेसबुक लाइव के माध्यम से उद्धव ठाकरे का भावुक भाषण इस बात की पुष्टि करता है कि शिवसेना का नेतृत्व पार्टी के कमजोर होने से भयभीत है। जरा सोचिये, जिस परिवार ने सत्ता से बाहर रहकर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिवसेना को मजबूत बनाकर रखा, उसी परिवार के मौजूदा मुखिया के नेतृत्व को उनके मंत्रियों एवं विधायकों ने अस्वीकार कर दिया है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से नाराज होकर शिवसेना के 56 में से लगभग 40 से अधिक मंत्री-विधायक कद्दावर नेता एकनाथ शिंदे के साथ चले गए। 56 में से 40 का बागी हो जाना छोटी घटना नहीं है। किसी और नेता से बगावत करके ये विधायक बाहर जाते तब भी उद्धव ठाकरे का वर्चस्व बचा रहता। लेकिन यहाँ तो शिवसेना के नेताओं ने उसी बिंदु को छोड़ दिया है, जो सबको बाँध कर रखता था। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की नाक के नीचे उनके मंत्रिमंडल के सदस्य इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को साथ लेकर सूरत चले जाने की योजना बनाते रहे और उन्हें भनक तक नहीं लगी। यह स्थिति बताती है कि एकनाथ शिंदे और उनके सहयोगी विधायक, उद्धव ठाकरे और कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता के जो आरोप लगा रहे हैं, वे सत्य हैं। बहरहाल, इस सियासी घटनाक्रम से उद्धव ठाकरे की साख ख़त्म हो सकती है। याद रखें, जिस दिन उद्धव ठाकरे ने भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर महाराष्ट्र विकास आघाडी सरकार का हिस्सा होना स्वीकार किया और मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली, उसी दिन राजनीतिक विश्लेषकों ने कहा था कि यह निर्णय शिवसेना और ठाकरे परिवार के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। कांग्रेस और राकांपा के साथ आने से शिवसेना की छवि को बहुत नुक्सान हुआ है। शिवसेना को हिंदुत्व के विचार का सशक्त राजनीतिक दल माना जाता था। इसलिए जब शिवसेना ने हिंदुत्व का विरोध करने वाली कांग्रेस के साथ गठबंधन किया तो उसकी इसी छवि पर चोट पहुंची। बागी शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे भी यही आरोप लगाकर उद्धव ठाकरे से दूर हुए हैं। उनका कहना है कि शिवसेना की छवि धूमिल हुई है। कांग्रेस और राकांपा के चक्कर में शिवसेना बाला साहेब के सिद्धांतों एवं हिंदुत्व से हट गई है। हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर जिस तरह की बेरुखी इस आघाडी सरकार ने लगभग ढ़ाई वर्ष के कार्यकाल में दिखाई है, उससे भी साफ़ पता चलता है कि कहीं न कहीं उद्धव ठाकरे हिंदुत्व के मुद्दों पर कांग्रेस और राकांपा के दबाव में थे। समाज से जुड़ा हुआ शिवसैनिक इस बदलाव को अनुभव कर रहा था। यह जो बागी मंत्री और विधायक हैं, उनके सामने भी यही चिंता हो सकती है कि सत्ता के लिए हिंदुत्व को छोड़ने की छवि लेकर वे जनता के बीच किस भरोसे से जाते। इसलिए अपनी छवि बचाने के लिए उन्होंने आघाडी सरकार में शामिल और दिग्भ्रमित शिवसेना से नाता तोडना ही उचित समझा। यदि कोई बहुत बड़ा और चौंकानेवाला घटनाक्रम नहीं होता है तो इस बेमेल गठबंधन की सरकार का गिरना तो तय है। और यदि ऐसा होता है तब भारतीय राजनीति में यह पहली बार होगा जब ‘हिंदुत्व’ के मुद्दे पर कोई सरकार गिरेगी।
