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आप ‘इंडिया’ से आए हैं, यह जुमला अब आप नहीं सुनते

  • अजय बोकिल
    दूनिया की जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर की मेरी यह दूसरी यात्रा थी। मन में कुछ सवाल थे कि इन बीते 12 सालों और खासकर 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद कश्मीर घाटी में क्या कुछ बदला है? हालात सुधरे हैं या और बदतर हुए हैं? सरकार द्वारा वहां शांति और विकास के दावों में कितनी सच्चाई है ? जमीनी हकीकत क्या है और कश्मीरियों की आजादी की चाहत में कोई तब्दीली आई है या नहीं? भारत का पूर्ण अंग बनने को उन्होंने कितने मन से स्वीकार किया है? आतंकवाद का पर्याय बना ‍दक्षिण कश्मीर अब पहले से ज्यादा सुकून में है या नहीं? राज्य की अर्थ व्यवस्था और प्रशासन के क्या हाल हैं? राजनीतिक गतिविधियों और व्यापार व्यवसाय की क्या स्थिति है? संक्षेप में यह कि बदले हालात में कश्मीर भारत के करीब आया है या और दूर चला गया है?
    इन तमाम सवालों के जवाब विस्तार से समझने होंगे। लेकिन जो सबसे बड़ा बदलाव कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद आया है, वो ये कि एक आम कश्मीरी और गैर कश्मीरी के बीच संवाद के दौरान अक्सर सुनाई देने वाला और एक भारतीय के मन को चुभने वाला वाक्य क्या ‘आप इंडिया से आए हैं?’ अब सुनाई नहीं देता। वरना 12 साल पहले का अनुभव यह था कि तकरीबन हर टैक्सी वाला, होटल वेटर से लेकर मैनेजर और स्थानीय दुकानदार भी गैर कश्मीरी भारतीयों को ‘इंडिया वाले’ कहकर ही पुकारते थे और इसी लहजे में बात करते थे कि मानो आप भारत के ही एक राज्य कश्मीर में आए पधारे ‘विदेशी पर्यटक’ हों। हालांकि कश्मीरियों का व्यवहार तब भी विनम्र ही होता था, लेकिन उसमें अलगाव की भावना साफ झलकती थी। इस बार जो फर्क दिखा वो यह था कि कश्मीरी सभी पर्यटकों के साथ आम पर्यटकों का सा ही व्यवहार करते दिखे। यह रिश्ता दुकानदार और ग्राहक का, मेहमान और मेजबान का था।
    एक और वाक्य, ‍जो पिछले दौरे में अक्सर कश्मीरियों के मुंह से सुनाई देता था, वो था ‘सेंट्रल गवर्नमेंट तो बहुत सा पैसा जम्मू- कश्मीर के लिए भेजती है पर हमारे नेता सारा पैसा खा जाते हैं।‘ यह वाक्य इस बार कहीं सुनाई नहीं दिया। यकीनन धारा 370 हटने के बाद भारत सरकार की कई कल्याणकारी योजनाएं जो सीधे तौर पर और राजनीतिक कारणों से कश्मीर में लागू नहीं हो पाती थीं, अब लागू हो रही हैं। इसका भी कुछ असर तो हुआ है। विकास के कामों में कुछ तेजी आई है। प्रदेश की राजधानी श्रीनगर स्मार्ट सिटी योजना में शामिल हैं। इसके सीईअो वही आईएएस अधिकारी अतहम आमिर खान हैं,जो कुछ साल पहले आईएएस टाॅपर टीना डाबी से विवाह के बाद चर्चा में आए थे। हालांकि बाद में दोनो का तलाक हो गया और दोनो ने दूसरी शादी भी कर ली। श्रीगर में कई फ्लाईअोवर बन गए हैं और कुछ निर्माणाधीन हैं। 12 साल पहले शायद ही कोई फ्लाईअोवर शहर में दिखा था। हालांकि इससे श्रीनगर की प्राकृतिक खूबसूरती में खलल पड़ा है, लेकिन शहर की बढ़ती आबादी और ट्रेफिक के लिए यह जरूरी था।
    तीसरा बड़ा फर्क कश्मीर में महिलाअों की बढ़ती भागीदारी है। हालांकि यहां महबूबा मुफ्ती जैसी पहली महिला मुख्यमंत्री भी रही हैं, लेकिन 12 साल पहले सार्वजनिक जीवन में महिलाएं इतनी बड़ी तादाद में नहीं दिखती थीं। अब कश्मीरी लड़कियां स्कूल और नर्सिंग के अलावा एयरपोर्ट, माॅल, होटलों, दुकानों, सुपरमार्केट, शासकीय दफ्तरों आदि में काम करती हुई काफी संख्या में दिखाई दीं। जहां तक कश्मीरी महिलाअों की बात है तो उनमें पढ़ने और आगे बढ़ने की ललक साफ दिखाई देती है। दूसरे, श्रीनगर और गांवों में भी कश्मीरी महिलाएं बुरका पहने कम ही दिखाई देती हैं। आमतौर पर कश्मीरी महिलाएं सलवार कुर्ता पहनती हैं और दुपट्टे से सिर जरूर ढंकती हैं।
    आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर में दूसरे अपराध नहीं के बराबर हैं। चोरील लूटमार, बलात्कार जैसे अपराध कश्मीरियों के लिए अपरिचित हैं। यही कारण है कि कश्मीर में महिलाएं बेखौफ घूमती और काम करती हैं। दूरदराज जंगल में भी अकेले एक- दो घरों में लोग रहते हैं, लेकिन अपराध का डर नहीं है। जहां तक सामाजिक जीवन की बात है तो कश्मीरी अभी भी ज्यादातर संयुक्त परिवारों में रहते हैं। उनके घर देखने में सुंदर, हवादार और रोशनी से भरपूर होते हैं। हर मकान दूसरे से कुछ दूरी पर होता है। मन में एक सवाल यह भी था कि लोग बाहर से ‘स्वर्ग’ कश्मीर को देखने आते हैं, लेकिन इस ‘स्वर्ग’ में रहने वाले खुद कश्मीर के लोग पर्यटन के लिए कहां जाते हैं? जाते भी हैं या नहीं? इन प्रश्नों का जवाब उन तमाम पर्यटन स्थलों पर जाने से ‍िमला, जहां गैर कश्मीरियों के अलावा बड़ी तादाद में कश्मीरी परिवार भी पिकनिक मनाते दिखे। (क्रमशः)

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