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- प्रो. जी.एल.
मोदी 3.0 का पहला पूर्ण बजट 23 जुलाई को एक बार पुन: वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ही पेश करेंगी और इस पर लोकसभा के ताजा चुनाव के नतीजों के विश्लेषण के जो नेरेटिव चल रहे हैं, उनका कितना प्रभाव होगा, इस पर चर्चा जारी है। लोकसभा चुनाव के दौरान जो नेरेटिव चले, उनका कितना और कैसा प्रभाव हुआ, यह हम सभी जानते हैं पर चुनाव नतीजों के बाद के नेरेटिव भी गौर करने लायक हैं। नेरेटिव का सीधा सरल अर्थ यह होता है कि ऐसा दुष्प्रचार जिसे वह पक्ष सही मान ले जिनके लिए वह गढ़ा गया है। इस परिभाषा में चुनाव के पहले के जो नेरेटिव थे उनमे प्रमुख थे – पूर्ण बहुमत मिलने पर भाजपा संविधान बदलने और आरक्षण समाप्त करने जैसे काम करेगी। चुनाव के बाद जो नेरेटिव गढ़े गए , वे और भी दिलचस्प हैं। इनमें प्रमुख हैं भाजपा को जनता ने नकार दिया है। मोदी सरकार कमजोर है, उसे समझौते करना पड़ेंगे, यह सरकार पूरे पांच साल नहीं चलेगी या फिर साथी दलों के दबाव में मोदी को निर्णय लेने पड़ेंगे।
मजे की बात देखिये कि यह प्रचार वे पार्टियां और उनके नेता कर रहे हैं जो 542 की लोकसभा में 100 का आंकड़ा भी नहीं पा सकी और अकेले भाजपा की सीटें पूरे इंडी गठबंधन से अधिक हैं। वास्तविकता यह है भाजपा और चुनाव पूर्व बने एनडीए गठबंधन को बहुमत से अधिक सीटें मिलकर न केवल एनडीए गठबंधन की सरकार बनी बल्कि मंत्रिमंडल में वित्त मंत्रालय सहित सभी प्रमुख विभाग के मंत्री भी पूर्व की सरकार वाले ही हैं जिन्होंने विगत 10 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में दुनिया में मान्यता दिलाई।
गौर करने लायक बात यह है कि जब दुनिया के विकसित राष्ट्रों में भी आज अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र दोनों को सम्हालने वाला नेतृत्व दिखाई नहीं दे रहा है, वहीं भारत जैसे विशाल देश में जनता ने तीसरी बार पूर्ण रूप से लोकतान्त्रिक तारीके से एनडीए गठबंधन को सत्ता सोंपी है। यह देश के लोकतंत्र और मोदी के लिए काबिले तारीफ़ है। पर नेरेटिव तो यही फैलाया जा रहा है कि एक कमजोर सरकार का आगमी बजट पर असर होगा और इसलिए उसके कामकाज में रोड़ा अटकाना देश हित में है। अब देखना यही है कि जिस प्रकार जनता ने कुछ झटकों से साथ ही क्यों न हो , यदि पिछले 10 वर्षों के कामकाज को देखते हुए निरंतर तीसरी बार सरकार बनाने का मौका मोदी को दिया है तो क्या केंद्र सरकार का यह बजट भी विकसित भारत की संकल्पना को ही निरंतरता देने वाला होगा या उन नेरेटिव की भेंट चढ़ेगा, जिनके चलते एक पार्टी के बहुमत का एक दशक का रिकार्ड टूटा ।
आमतौर पर बजट को अच्छा या बुरा कहने में करदाताओं की मिलने वाली छूटें और मुफ्त की रेवड़ियों पर ही अधिक फोकस होता है और इसके समर्थको में तथाकथित वामपंथियों का बड़ा हिस्सा होता है, जो अपनी अवधारणा से कोई परिवर्तन नहीं ला सके । यह वर्ग कुछ दशकों के गर्दिश के बाद भारत ही नहीं दुनिया में फिर से सर उठाने लगे हैं और जो लोग इस तरह के अर्थशास्त्र के समर्थक हैं, वे दुनिया के लगभग आधी शताब्दी के अनुभव के बाद भी अपनी सोच को बदलने को तैयार नहीं हैं। अब यदि भारत की बात की जाए तो पिछले दस वर्षों के नीतिगत बदलाव और उसके लिए आवश्यक बजट व्यवस्था ( कोविड के काल को जोड़कर ) का प्रयोग का आकलन किया जाए तो यह सत्य ही कि देश ने लगभग सभी अर्थशास्त्रीय मानकों जैसे विकास दर, मंहगाई, रोज़गार, राजकोषीय घाटा, कर राजस्व में वृद्धि , आधारभूत संरचना विकास, इज ऑफ़ डुइंग बिजनिस, निर्यात, विदेशी मुद्रा भण्डार आदि के साथ साथ सामाजिक कार्यों में विनियोग से लगभग 25 करोड़ लोगों को बाहर निकालने जैसी उपलब्धियां हासिल की हैं। इन अनुकूल उपायों की निरंतरता के लिए सरकार का स्थायित्व पहली प्राथमिकता होती है क्योंकि किसी भी सरकार के लिए भारत जैसे विशाल देश की काया पलटने के लिए 5 वर्ष नाकाफी होते है और इस लिहाज से जनता ने 10 वर्षों के काम की निरंतरता के लिए ही 2024 में पुन: एनडीए की सरकार बनाने का निर्णय दिया है और यह बात मोदी और निर्मला सीतारमण को याद दिलाने की ज़रुरत नहीं हैं।
रही बात एक कमजोर सरकार होने के नेरेटिव की, तो सरकार ने अपने मंत्रिमंडल के गठन और पहले सत्र में जो सन्देश दिया है, वह बजट में निरंतरता होने का विश्वास दिलाता है। यूँ तो बजट की अपेक्षाओं और उन्हें पूरा करने के सरकार के प्रयासों के विश्लेषण के अनेक आयाम होते हैं परन्तु जिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान दिया जाना चाहिए वह है अर्थव्यवस्था की स्थिति और सरकार की उसकी मजबूती के लिए की गई दीर्घकालीन जमावट। इस अर्थ में मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड बेहतरीन है। जब दुनिया की बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए वर्ष 2025 का अंतर्राष्टीय मुद्रा कोष का अनुमान अमेरिका( 2.6%),फ्रांस ( 0.9 %), ब्रिटेन ( 0.7 %) और चीन (5%) की तुलना में भारत के लिए (7% ) अधिक हो और वर्तमान में यह 8% से अधिक दर से हासिल हो रही हो तो यह देश में विरोधी पक्ष के नेरेटिव्ह की स्वत : पोल खोलते हैं। इस उपलब्धि में अगर विगत दो वर्षों में 1.70 लाख करोड़ के पूंजीगत निवेश का बड़ा हिस्सा है तो आगामी बजट में यह निरंतर रहने वाला है और इसके लिए सभी बड़े मंत्रालय भी पुराने मंत्री ही सम्हाल रहे हैं।
दूसरा बड़ा प्रमाण यह है कि यदि देश का कर संग्रह वह चाहे तो प्रत्यक्ष कर हो या अप्रत्यक्ष कर , 20 से 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा हो तो यह करदाताओं को थोड़ी बहुत राहत देने के लिए भले ही प्रेरित भी करता है और निर्मला सीतारमण शायद इसका ध्यान रखेंगी। यदि ऐसा नहीं होता तो भी कोई पहाड़ नहीं टूट रहा। आम करदाता को यदि देश का सही मायने में विकास होते देखना है तो कर को बोझ न समझकर देश के विकास में अंशदान समझाना चाहिए। ऐसा होने पर न केवल हम ईमानदारी से कर देंगे वरन राजनेताओं और प्रशासन पर उसके सही और पारदर्शी इस्तेमाल का दबाव भी बना सकेंगे।
आगामी बजट में कृषि, उद्योग, अधोसंरचना के साथ अन्य विकास के आधुनिक और नवोन्मेषी प्रयोग तो होंगे ही परन्तु किसान सम्मान निधि, पी एम् आवास योजना और वरिष्ठ नागरिकों के स्वास्थ्य जैसे सामाजिक कार्यों के लिए भी आकर्षक बजट आबंटन की संभावना है क्योंकि कर संग्रह बढ़ने के साथ ही पहली बार रिज़र्व बैंक ने 2.21 लाख करोड़ रुपयों का जो लाभांश दिया है उसने इन सामाजिक योजनाओं के लिए धन उपलब्ध होने के साथ ही राजकोषीय घाटे को अंतरिम बजट के अनुमान अर्थात जीडीपी के 5.1 से भी नीचे ले जाने की संभावना बढ़ती है।
इतना अवश्य है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जो उथल पुथल है उसका कुछ नुकसान हमें होगा पर मोदी सरकार संकट को अवसर में बदलने के लिए जानी जाती है और यहाँ भी परिस्थितियां भारत के अनुकूल हो सकती हैं क्योंकि भारत की स्थिरता और दस वर्ष की आर्थिक नीतियां विपक्षियों को भले ही न लुभायें पर दुनिया के उद्योगपतियों जिन्हें डीप स्टेट के नाम से जाना जाता है, को अवश्य आकर्षित कर रही हैं। रही बात चन्द्र बाबू नायडू और नीतीश कुमार के दबाव की तो उन्हें मिलने वाला अतिरिक्त बजट सपोर्ट उनके राज्यों के लिए दशको से लंबित विकास के लिए होगा, राजनेताओं की लूट के लिए नहीं, इतना तो बदलाव मोदी ने कर ही दिया है।
अंत में एक महत्वपूर्ण बात पर बजट में क्या कुछ होता है, इसका इंतजार रहेगा। याद कीजिए मोदी जी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि उनके पास सीबी आई और अन्य एजेंसियों द्वारा जप्त किया हुआ लगभग 1.25 लाख करोड़ रूपया है और वे इसका कैसा उपयोग किया जाए, इसका आकलन कर रहे हैं। यदि इसे बजट का हिस्सा ( एक अलग शीर्षक बनाकर ) बनाकर देश के विकास में लगाया जा सके तो उत्तम होगा। देश की लम्बी कानूनी प्रक्रिया में जब जप्त धन के दावेदार अगले 10 -15 वर्षों में जीतेंगे और कुछ राशि पर उनका दावा सिद्ध होगा तो उस वर्ष के बजट में उसे खर्चे में ( नए शीर्षक के साथ ) डाला जा सकता है। इसी प्रकार उन्होंने भ्रष्टाचार पर जो कड़ा प्रहार करने का सन्देश दिया था, उस पर भी उम्मीद मोदी के ट्रेक रिकार्ड को देखकर की जा सकती है। कुछ लोग यह दावा कर रहें हैं कि मोदी की इस हुंकार से ही उनके अश्वमेध रथ को रोका और उसमें विरोधी कम और अपने ज्यादा थे और इसलिए मोदी अपने इस लक्ष्य से थोड़े डिगेंगे। खैर, दावे प्रतिदावे कुछ भी हों, यह उम्मीद आगामी बजट से मजबूत ही होगी कि यह मोदी 3.0 सरकार आर्थिक मोर्चे पर भी निरंतरता को ही तरजीह देगी, किसी राजनैतिक दबाव या मजबूरी को नहीं ।