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क्यों जरूरी है बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देना

  • आर.के. सिन्हा
    अभी कुछ दिन पहले ही केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसआई) ने एक बेहद जरूरी फैसला लिया। इसके तहत अब सीबीएसई स्कूलों को प्री-प्राइमरी से 12वीं कक्षा तक क्षेत्रीय व मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने का विकल्प देगी। अब तक, राज्य बोर्ड स्कूलों के विपरीत, सीबीएसई स्कूलों में केवल अंग्रेजी और हिंदी माध्यम ही शिक्षा प्राप्त करने का विकल्प था। सीबीएसई ने अपने सभी संबंधित स्कूलों से कहा है कि जहाँ तक संभव हो सके यथाशीध्र तो पांचवीं कक्षा तक क्षेत्रीय भाषा में या फिर बच्चे की मातृभाषा में पढ़ाई के विकल्प उपलब्ध करायें। बेशक, यह एक युगांतकारी फैसला है। हरेक बच्चे के पास यह विकल्प होना ही चाहिए कि वह अपनी मातृभाषा में स्कूली शिक्षा ग्रहण कर सके । हां, उसे विषय के रूप में कोई एक भाषा या एकाधिक भाषाएं पढ़ाई जा सकती हैं।
    भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ने भी अपनी स्कूली शिक्षा क्रमश: अपनी मातृभाषाओं हिन्दी और मराठी में ही ली थी। ये दोनों आगे चलकर अंग्रेजी में भी महारत हासिल करने में सफल रहे। इन दोनों से बड़ा ज्ञानी कौन होगा। यानी आप प्राइमरी तक अपनी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने के बाद बेहतर ढंग से आगे बढ़ सकते हैं। टाटा समूह के चेयरमेन नटराजन चंद्रशेखरन ने भी अपनी स्कूली शिक्षा अपनी मातृभाषा तमिल में ही ली थी। उन्होंने स्कूल के बाद इंजीनियरिंग की डिग्री रीजनल इंजीनयरिंग कालेज (आरईसी), त्रिचि से हासिल। यह जानकारी अपने आप में महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि तमिल भाषा से स्कूली शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी ने आगे चलकर अंग्रेजी में भी महारत हासिल किया और करियर के शिखर को छुआ। बेशक, भारत में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करने की अंधी दौड़ के चलते अधिकतर बच्चे असली शिक्षा को पाने के आनंद से वंचित रह जाते हैं। असली शिक्षा का आनंद तो आप तब ही पा सकते हैं,जब आपने कम से कम पांचवीं तक की शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही हासिल की हो।
    विभिन्न अध्ययनों से प्रमाणित हो चुका है कि जो बच्चे मातृभाषा में स्कूली शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे अधिक सीखते हैं। अंग्रेजी का विरोध नहीं है या अंग्रेजी शिक्षा या अध्ययन को लेकर कोई आपत्ति भी नहीं है। पर भारत को अपनी भाषाएं, चाहे हिन्दी, तमिल, बांग्ला या कोई अन्य, में प्राइमरी स्कूली शिक्षा देने के संबंध में तो बहुत पहले ही फैसला ले लेना चाहिए था। क्योंकि उसके बिना बच्चों को सही शिक्षा तो नहीं दी जा सकती। हां, शिक्षा के नाम पर प्रमाणपत्र जरूर बांटे जा सकते हैं। याद रखे कि शिक्षा का अर्थ है ज्ञान। बच्चे को ज्ञान कहां मिला? हम तो उन्हें नौकरी पाने के लिए तैयार कर रहे हैं। अभी हमारे य़हां पर दुर्भाग्यवश स्कूली या क़ॉलेज शिक्षा का अर्थ नौकरी पाने से अधिक कुछ भी नहीं है।
    आजादी के बाद हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान का जो सपना देखा गया था वह सपना दस्तावेजों और सरकारी कार्यक्रमों मेंही दबकर रह गया था। हम सब जानते हैं कि सारे देश में अंग्रेजी के माध्यम से स्कूली शिक्षा लेने- देने की महामारी ने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है। जम्मू-कश्मीर तथा नगालैंड ने अपने सभी स्कूलों में शिक्षा का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी ही कर दिया है। महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडू समेत कुछ और अन्य राज्यों में छात्रों को विकल्प दिए जा रहे हैं कि वे चाहें तो अपनी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी रख सकते हैं। यानी बच्चों को उनकी मातृभाषा से दूर करने की भरपूर कोशिशें हुईं।
    मुझे मेरे एक मित्र, जो राजधानी के मशहूर स्कूल के प्रधानाचार्य रहे हैं, बता रहे थे कि जब वे हरियाणा के करनाल जिले के एक ग्रामीण इलाके में पढ़ा रहे थे तो उन्हें एक नया अनुभव हुआ। वहां पर माता-पिता के साथ बच्चे खुशी-खुशी स्कूल में दाखिला लेने आते। वे नई किताबें और कॉपियाँ लेकर स्कूल आने लगते। लेकिन, स्कूल में कुछ दिन बिताने के बाद उनका स्कूल से मोहभंग होने लगता। वे कहने लगते कि उन्हें तो पढ़ना आता ही नहीं।

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