शिवकुमार विवेक
सागर। लाखा बंजारा कौन था, यह प्रश्न पहेली सा है। मध्यप्रदेश के सागर नगर में यह लाखा बंजारा महानायक की तरह प्रतिष्ठित है। वहां दो ही शख्स आधुनिक शहर के निर्माताओं के रूप में देखे जाते हैं, एक-डॉ. हरीसिंह गौर, जिन्होंने प्रदेश का सबसे बड़ा और देश का अठारहवां विश्वविद्यालय बनवाकर बुंदेलखंड के इस पिछड़े इलाके को आगे बढ़ने का जरिया दिया तो दूसरा लाखा बंजारा जिसने इतनी बड़ी झील बनाई कि इस शहर का नाम ‘सागर’ पड़ गया। यानी समुद्र। समुद्र सी विशाल। आनासागर, हुसैन सागर, उदयसागर जैसी कई विशाल झीलों को देश भर में जाना जाता है और समुद्र शब्द से ही बना राजसमंद नाम जिस झील को दिया गया, उसी नाम से राजस्थान का एक जिला जाना जाता है लेकिन किसी बड़े शहर का नाम सागर होना उस शहर के लिए झील की उपादेयता को अपने आप सिद्ध करता है।
यह झील मध्यप्रदेश में भोपाल के बाद सबसे बड़ी झील है। (वर्तमान: 147 एकड़ जलक्षेत्र व 1815 एकड़ जलग्रहण क्षेत्र/ पहले इससे लगभग तीन गुना अधिक क्षेत्र था। अंतर यह है कि भोपाल की झील को राजा भोज ने बनवाया तो सागर की झील का श्रेय एक बंजारे को दिया जाता है। वहां राजा भोज, यहां गंगू तेली। पर जहां राजा भोज के व्यक्तित्व की खूबियों और कीर्तिगाथाओं से इतिहास के पन्ने भरे हैं, वहीं लाखा बंजारा अज्ञात जीवन परिचय का नायक है।
उसकी कहानी इतिहास में नहीं, किंवदंतियों में है। सागर विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ. बीके श्रीवास्तव का कहना है कि उसके लिए पारंपरिक स्रोतों को ही खंगालना होगा। जबकि हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुरेश आचार्य का कहना है कि विश्वविद्यालय में भी लाखा के लोकसाहित्य पर ज्यादा काम नहीं हुआ क्योंकि इस मात्रा में लाखा से संबंधित लोक गाथाएं या अन्य साहित्य न के बराबर है।
यद्यपि सागर के लोग उसका उपकार मानते हैं। उसके नाम पर झील का नाम रखा गया। राजघाट परियोजना आने के पहले पानी की भीषण त्रासदी झेलने वाले इस शहर के लिए यह तालाब वरदान की तरह था। वो तो प्रदूषण और मलबा जमने से पानी की मात्रा कम होने के कारण यह जलसंकट मिटाने में लाचार हो गया। लेकिन तब भी पीढ़ियों से शहर का जीवन इसी के सहारे गुजरता रहा। सो, इसके बनाने वाले या इसका उद्धार करने वाले को याद करना स्वाभाविक है। चाहे वह अज्ञात, अनाम और अमूर्त हो।
भारतविद् डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू कहते हैं कि लाखा एक व्यक्ति नहीं बल्कि समूह था और उनका एक मुखिया था। ये बंजारे देश भर में तालाब खोदते थे और उनमें ही लाखा नाम या उपाधि चलती थी। उदयपुर की प्रसिद्ध पीछोला झील बंजारों ने खोदी। नाम था जिसका छीतर। चित्तौड़गढ़ के राजा लक्ष्यसिंह उर्फ लाखा ने बंजारों की मदद से इसे बनवाया। लोक इसे ‘लाखा बंजारे की झील’ कहकर पुकारता है। इसके निर्माण का काल लगभग वही था जब सागर की झील के पुनरुद्धार की चर्चा की जाती है। तब बंजारे देश भर में झीलें और पानी के स्रोत बना रहे थे। उनकी इसमें महारत थी। लक्ष्य उर्फ लाखा ने उन्हीं की मदद से देश भर में व्यापार विस्तार भी किया। चित्तौड़ से मध्यप्रदेश के विदिशा तक कारोबार होने के स्पष्ट साक्ष्य मिलते हैं। इसलिए डॉ. जुगनू इन्हीं बंजारों के तार सागर झील से जुड़े होने की संभावना से इंकार नहीं करते।
सागर विवि के इतिहास विभागाध्यक्ष डॉ. बीके श्रीवास्तव बताते हैं कि सागर के समीपस्थ गढ़पेहरा के शासक ऊदन (उदयन) शाह ने 1660 में जब झील के किनारे बस्ती बसाकर आज के सागर की नींव रखी तब वह भी पानी के संकट से बुरी तरह जूझ रहा था। सो संभव है कि उसने बंजारों को बुलाकर, जिनको इस कला में महारत हासिल हो चुकी थी और जो देश भर में यह काम कर रहे थे, झील का पुनरुद्धार कराया हो। हो सकता है कि आसपास के बंजारों ने इसे खोदा हो। उत्तरप्रदेश के तालबेहट के पास बालाबेहट से आए बंजारों की इस काम में भागीदारी हो सकती हैं।
भूगर्भ शास्त्री इसे प्राकृतिक झील मानते हैं। अनुमानतः तेरहवीं सदी की। विंध्य ट्रप की परतें उघड़ जाने और सैंडस्टोन के तीन तरफ पहाड़ होने से पानी बहकर जिस पोखर में आता था, वह झील बन गया। इतिहास के किस कालखंड में यह बनी, यह सटीक अनुमान तो भूगर्भीय शास्त्री अथवा सरोवर विज्ञान ही कर सकेगा।
किंवदंती है कि झील में पानी नहीं था, सो यह आह्वान किया गया कि जो अपने परिजन की बलि देगा, वह झील में पानी लाने का यश प्राप्त करेगा। लोगों के कष्ट निवारण के लिए यह जिम्मेदारी किसी न किसी को लेनी थी। ऐसे में लाखा बंजारा ने अपने बहू व बेटे को झील में डाले गए झूले में बैठाकर झुलाया जिनकी पानी में ही जलसमाधि हो गई और झील लबालब भर गई। यह किंवदंती सोलह-सत्रहवीं सदी से पूर्व की होगी क्योंकि सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तो झील किनारे राजा ऊदन शाह ने अपनी व्यवस्थित राजधानी बसा दी थी और अठारहवीं शताब्दी में मराठा शासकों ने घाट गुलजार कर दिए थे।
कई किस्से अक्सर प्रतीकात्मक होते हैं। गढ़पेहरा पहाड़ी पर नटिनी के रस्सी काटने के किस्से को ही लीजिए। इसे आप मेवाड़, गुजरात, महाराष्ट्र व पंजाब के अलग-अलग स्थानों पर शब्दशः सुन सकते हैं। बंजारे ने परिश्रमपूर्वक झील में पानी की आवक के रास्तों को खोला होगा अथवा पानी का संचय रखने के लिए बांध-बंधान बनवाया होगा या गहरीकरण किया होगा। झील के तीन तरफ पहाड़ियां होने से एक तरफ से उसे बांधने से पानी को रोकने का विकल्प हमेशा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि सागर के राजा ऊदन शाह का झील के निर्माता या उद्धारक के रूप में नाम नहीं लिया जाता। ऊदनशाह या इसे नया शहर बनाने वाले गोविन्दराव बल्लाल पंत बुंदेला, जो पानीपत के युद्ध में मारे गए, महानायक नहीं हैं। अज्ञातकुलशील लाखा इसका नायक है लेकिन वह ऐसा नायक है जिसकी प्रशस्तियों के पन्ने लोकश्रुति में नहीं मिलते वरना सागर जैसे प्रदेश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में इस पर कई शोध प्रबंध लिखे जाते और कई लोग डॉक्टरेट पा चुके होते।
तो क्या इसे दिल्ली-पंजाब के संपन्न और नामी व्यापारी लक्खीशाह बंजारा ने बनवाया? कुछ लोगों की इसमें सम्मति है। किंतु इतिहास इसके साक्ष्य नहीं देता। बाद के संदर्भों में लक्खी को सागर से जोड़ा गया। लोकसभा के एक सदस्य हरिभाऊ राठौड़ ने संसदीय बहस के दौरान लक्खी शाह को सागर झील का निर्माता ठहराया था। लोकसभा डिबेट्स में यह उल्लेख मिलता है। लेकिन समकालीन प्रमाणों में लक्खी के सागर आने-जाने, जलाशय निर्माण में भागीदारी करने का उल्लेख नहीं मिलता। यह इसलिए काबिले जिक्र है क्योंकि लक्खी की सक्रियता का काल लगभग ऊदन शाह का समय है। दिल्ली में तब मुगलों का शासन था। उस समय इतिहास लिखा जाता था और कई दस्तावेजी प्रमाण भी सहेजे जाने लगे थे। खुद लक्खीशाह के बारे में कई दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद हैं। अंगरेजों ने इस इलाके का काफी इतिहास लिखा-संजोया। न केवल उनके विवरणों में सागर की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन मिलता है, बल्कि यहां के सामाजिक जीवन का भी चित्रण भी किया गया है। जॉन मास्टर्स का चर्चित उपन्यास ‘वीनस ऑप कोंपरा’ यहीं लिखा गया। इसकी नायिका देवरी के कोपरा गांव की लड़की है। हालांकि इसमें आर्यों के आक्रमण और द्रविड़ों पर अत्याचारों की भ्रामक जानकारी उसकी अज्ञानता की द्योतक है।
लक्खीशाह का जन्म 1580 में और निधन 1680 में हुआ। लक्खीशाह दिल्ली के रायसीना गांव में रहता था और गुरु तेगबहादुर के मृत शरीर को मुगलों से बचाकर अंतिम संस्कार के लिए सुरक्षित लाने वाला वही था। उसके द्वारा पंजाब-हरियाणा में जलाशय बनाने या उनको संवारने का जिक्र मिलता है। चूंकि वह बड़ा कारोबारी था इसलिए उसके पास विशाल संख्या में बैल व असबाब होता था और बड़ा काफिला साथ चलता था। यह भी इतिहास में दर्ज है कि वह लगभग हर दस कोस पर जलाशय बनवाता था। यदि दंतकथा के मुताबिक लक्खीशाह बंजारे के पुत्र व पुत्रवधू की झूले में झुलाकर तालाब की खातिर बलि दी गई होती तो इतिहास इस पर मौन नहीं रहता। जिस तरह से उसने लाखा बंजारे की गुरु तेग बहादुर के लिए किए गए त्याग की चर्चा की है। इसका अर्थ यह है कि तालाब का उद्धारक कोई और लाखा बंजारा था।
लक्खी शाह के जीवन काल में ही ऊदन शाह का आविर्भाव हुआ। इसलिए यह भी एक अनुमान हो सकता है कि ऊदनशाह ने ही लक्खी के बंजारों की सेवाएं ली हों। लेकिन इतिहासविद इससे सहमत नहीं हैं। सागर के लोकनायक का नाम लक्खी की बजाय लाखा बंजारों से ज्यादा मेल खाता है। इतिहास में कई समकालीन लाखा मौजूद हैं तो लक्खी को लाखा कहना शायद दूर की कौड़ी होगी। बंजारे, जो देश भर में जलाशय बनाने में लगे हुए थे और जिसके मुखिया लाखा होते थे। ‘एथनोबॉटनी ऑफ राजस्थान’ में लिखा है-बंजारा समुदाय में जो समृद्ध होते हैं, वो लाखा बंजारा होते हैं। बंजारों में यह आम उक्ति है कि ‘हम लाखा के बंजारे हैं।’
मुगलों के इतिहास में बंजारों का उल्लेख सोलहवीं सदी से मिलता है। प्राचीन समय में सभी बड़े कारोबारी बैल या ऊंटगाड़ियों का काफिले लेकर चलते थे और अपने काफिले की जरूरतों के लिए पानी व खाद्य सामग्री का प्रबंध करते थे। डॉ. जुगनू इन काफिलों के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए राजस्थान, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात में कई मार्गों पर ऐसे पड़ाव और प्रबंधों की जानकारी देते हैं। वे कहते हैं-प्राचीन समय में नमक के लिए बड़ा संघर्ष होता था। राजस्थान की सांभर झील व गुजरात के नमक उत्पादन केन्द्रों पर कब्जे के लिए शासकों के बीच होड़ रहती थी। नमक के इस कारोबार के लिए देश भर से काफिले चलते थे जो राजस्थान के सांभर व गुजरात के गिरनार, सूरत तक जाते थे। सागर इनके मार्ग में था। वैसे भी एक समय सागर होकर पाटलिपुत्र से उज्जैन और वहां से सूरत तक आवाजाही का राजमार्ग था।
डॉ. जुगनू मानते हैं कि इस दौर में न केवल जलस्रोत बने बल्कि उनका उद्धार भी किया जाता रहा। इसके अलावा, राजे-महाराजे भी जलाशयों के निर्माण में रुचि रखते थे। सागर जिले के आसपास खूब तालाब बनाए गए थे। चंदेल राजा तो इसके लिए मशहूर हैं। मुगलों के काल में जलाशयों के निर्माण में प्रशासकीय अड़चनों का जिक्र मिलता है। डॉ. जुगनू बताते हैं कि इस काल में मुगलों की तालाब विरोधी मानसिकता भी देखने को मिलती है। उदयपुर के राजसमंद अभिलेख में राजसमंद झील बनाते हुए मुगल शासकों से इसे बचाने की बात कही गई है-‘धन की कमी न आए, मुगलों से लड़ाई न छिड़े।’ उदयसागर के निर्माण में भी यह लड़ाई छिड़ी थी। भोपाल में राजा भोज द्वारा बनाई गई विशाल झील, जिसमें आज का मंडीदीप कस्बा एक द्वीप की तरह हुआ करता था, को होशंगशाह ने तुड़वाया था जिसके खाली होने में तीन दिन से एक सप्ताह तक का समय लगा था। यही होशंगशाह होशंगाबाद जिला मुख्यालय वाले शहर का संस्थापक माना जाता है। उसने नर्मदापुर का नाम बदलकर होशंगाबाद किया था।
वैसे सागर ही नहीं, देश भर के हर हिस्से में लाखा बंजारा लोकप्रिय रहा है। राजस्थान का रेलमगरा बंजारों का मूलस्थान माना जाता है जो रूपा नायक ( बंजारा) की भूमि है। उत्तर भारत से लेकर बंगाल तक शायद ही कोई राज्य होगा जहां लाखा बंजारा की कोई कथा या उल्लेख न मिलता हो। यहां तक कि एक इतिहास प्रसिद्ध प्रेमी जोड़ी भी लाखा बंजारा नाम से मशहूर हुई है जिनके पिता ने उनकी हत्या कर दी थी और गुरु गोरखनाथ ने पुनर्जीवित किया। एक कथा में बताया गया है कि दमयंती जंगल में घूम रही थी जिसने बंजारों के समूह को आते देखा, जिनका नेता लाखा बंजारा था।
प्राचीन समय में पुराना पंजाब, लाठमंडल व सूरत से लगा इलाका बंजारों का केन्द्र था। हिमाचल प्रदेश में लाखा मंडल मंदिरों का समूह है। बंगाल में लाखा बंजारे का बनवाया एक मंदिर है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अकाल के वक्त राजस्थान से आया था। उड़ीसा की लोककथाओं व गीतों में लाखा बंजारे की गाथा आज भी गाई जाती है। मेवाड़ ने लाखा की बड़ा सम्मान दिया। वहां आज भी लाखा के तालाब और गांव हैं : लाखावली, लाखागुड़ा, लाखोला (लाखो तालाब), लाखानाड़ी ( तलैया), लाखा की बालद, लाखा का टांडा ( समूह), लाखा बंजारों का झूंपा ( खेड़ा), लाखोलाव ( नगावली) आदि। संयोग से सभी जगह जलस्रोत मौजूद हैं। मध्यप्रदेश में ही बैतूल के पाथाखेड़ा में लाखा बंजारा हनुमान की प्रतिमा है। इसका अर्थ है कि बंजारों की प्राचीन समाज जीवन में काफी सक्रिय भूमिका थी और लाखा इनमें प्रतिष्ठित था। इसलिए सागर के लाखा का इन बंजारों से संबंध होना ही ज्यादा सटीक लगता है।
बंजारे माल के कारोबारी या वाहक का काम करते थे। बंजारों की लवाना या लोबाना जाति इसी के लिए खासतौर से जानी जाती है। लक्खीशाह भी मूलतः लोबाना सिख था। कच्छ में यह एक प्रतिष्ठित जाति है। जिसके पास लाख बैल होते थे, उसको लाखा की उपाधि मिल जाती थी। बैल उस समय बहुमूल्य संपत्ति होती थी। डेविड जे फिलिप्स ने अपनी पुस्तक ‘पीपल्स ऑन द मूव’ में लिखा- ‘बंजारे बैलों को लेकर चलते, उनके पैरों को पूजते। उनका एक पूर्वज लाखा बंजारा था।’ हड़प्पा से ही बैल की प्रतिष्ठा मिल चुकी थी। यह आवागमन और कृषि व व्यापार का अनिवार्य साधन था। सो इन्हीं बंजारों ने इतिहास के किस कालखंड में इस झील को अपने श्रम से सींचा, कहना कठिन है।
यह अवश्य है कि इस झील का कोई संस्थापक या आदि निर्माता नहीं है। उद्धारक है जो अमूर्त है। वह उन अनाम बीसियों या सैकड़ों बंजारे श्रमिकों का एकीकृत स्वरूप भी माना जा सकता है। उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए मन में एक टीस होती है कि क्या अब कोई उद्धारक आएगा। ‘आज भी खरे है तालाब’ में अनुपम मिश्र इसी व्यथा को यूं बयां करते हैं- :एक बंजारा यहां आया और विशाल सागर बनाकर चला गया लेकिन नए समाज की चार साधन संपन्न संस्थाएं इसकी देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं। डिग्रियां बंट चुकी है पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।’
Who was the superhero Lakha Banjara..?