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स्वतंत्रता संघर्ष में जेल गई : सामाजिक जागरण केलिये कन्या पाठशाला आरंभ की

  • रमेश शर्मा
    दुर्गा बाई देशमुख ऐसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं जो अंग्रेजों से भारत मुक्ति के संघर्ष में जेल गई और स्वदेशी की चेतना जगाने अपने स्तर पर कन्या पाठशाला आरंभ की । भाग लेने और जेल जाने के साथ दुर्गाबाई देशमुख के जीवन का वृतांत अंग्रैजों के उस कुप्रचार का खंडन है जिसमें कहा जाता है कि अंग्रेजों के आने के पहले भारत में स्त्री शिक्षा नहीं थी । यह ठीक है कि सल्तनतकाल में अनेक बदलाव दिखे पर निजी स्तर पर अनेक महापुरुषों ने परंपराएँ अक्षुण्य रखीं। इन्हीं परंपराओं में इतिहास प्रसिद्ध लोकमाता अहिल्याबाई ने बचपन में शिक्षा ली थी और इसी धारा से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दुर्गाबाई देशमुख ने शिक्षा प्राप्त की । उनका जन्म 15 जुलाई 1909 को आन्ध्रप्रेश के काॅकीनाड़ा क्षेत्र के अंतर्गत राजामुंद्री में हुआ था। पिता रामाराव भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे । जब वे दस वर्ष की थीं तब पिता का निधन हो गया । उनकी माता कृष्णावेनम्मा स्वतंत्रता संग्राम भी स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ीं थीं। माता काँग्रेस की सचिव भी बनी । कृष्णावेनम्मा स्वदेशी का प्रचार करतीं थीं । उनके साथ बालिका दुर्गा भी घर घर जाती । परिवार में शिक्षा का वातावरण था । माता अंग्रेजी के साथ संस्कृत और तेलगू भाषा जानती थीं। घर के वातावरण के रहते दुर्गाबाई देशमुख ने भी निजी स्तर पर संस्कृत, तेलगू और हिन्दी की शिक्षा लेने लगीं । माँ की प्रेरणा से दुर्गाबाई आसपास की बालिकाओं को पढ़ाने का कार्य किया और आगे चलकर स्वदेशी और स्वभाषा आधारित लड़कियों की पाठशाला आरंभ की । गांधीजी ने उनके इस कार्य की सार्वजनिक प्रशंसा की और अनुकरणीय बताया ।
    बच्चियों को शिक्षित करने के साथ उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया । 1930 में आरंभ हुये नमक सत्याग्रह में 25 मई 1930 को गिरफ्तार हुईं । उन्हें एक वर्ष की सजा हुई। जेल से लौटकर पुनः सक्रिय हुई और फिर गिरफ्तार करलीं गई। इस बार तीन वर्ष का कारावास हुआ । दुर्गाबाई ने जेल में अंग्रेजी सीखी। जेल से लौटकर उन्होने बीए पास किया और वकालत पढ़ने मद्रास चलीं गई । मद्रास विश्वविद्यालय से पहले एम.ए. फिर वकालत पास की वे इतनी पढ़ने में इतनी मेधावी थीं कि प्रत्येक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और पदक प्राप्त किये । 1942 में वकालत आरंभ की । वे हत्या के मुक़दमे में बहस करने वाली भारत की पहली महिला वकील कहलाईं। दुर्गाबाई 1946 में संविधान परिषद् की सदस्य बनीं।

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