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- सोनम लववंशी
राष्ट्रवाद की छाती पर हमारी रहनुमाई व्यवस्था भले ‘भारत भाग्य विधाता’ की धुन बजाकर अमृतकाल का गौरव गान कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ मणिपुर में दो महिलाओं को निर्वस्त्र करने की घटना ने संविधान, लोकतंत्र, राष्ट्र, राज्य और शासन- व्यवस्था की चूलें हिला दी है। महिलाओं के साथ हुआ अन्याय निंदनीय है। दुर्भाग्यपूर्ण है और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करती है, लेकिन कुछ लोग हमारे समाज में ऐसे हैं। जो निर्लज्जता के साथ समाज के बर्बर हो जाने के बावजूद राजनीति साध रहे हैं। मानवता को शर्मसार करने वाली घटना को राजनीतिक चश्में से देख रहे हैं। मणिपुर में हुई बर्बर, असभ्य घटना को किनारे कर पश्चिम बंगाल, राजस्थान और छतीसगढ़ में हुई घटनाओं की तरफ इशारा कर रहे हैं। ऐसे लोग जो महिलाओं की आबरू, अस्मिता, सम्मान और उनकी इज्जत को लाल, पीले और हरे में बांटने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीतिक रंग देने में लगें हैं! सवाल उन्हीं से है? क्या वे अपनी बहन-बेटियों के साथ ऐसी बर्बरता और बदसलूकी होने के बावजूद भी राजनीतिक रंग घटनाओं को देने का इंतजार करेंगे या अपने आकाओं की ख़ुशी की ख़ातिर अपनी बहन-बेटियों की इज्ज़त सरेआम हो जाने देंगे? मणिपुर में महिलाओं की अस्मिता खुलेआम लूटे जाने के बाद सवाल यही है कि आखिर हर बार स्त्री ही क्यों किसी घटना, दुर्घटना, युद्ध या झगड़े का संताप झेलने को विवश होती है?
इतिहास गवाह है कि जब भी कोई विपरीत परिस्थितियों का आगमन हुआ है। पुरुष समाज ने हमेशा महिलाओं को ही ढाल बनाकर खड़ा कर दिया है। फिर चाहे वो कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण हो या मणिपुर में दो स्त्रियों की नग्न अवस्था में परेड निकालना और दुर्भाग्य देखिए दोनों ही घटनाओं में या तो पुरुष समाज अपराधी रहा है या धृतराष्ट्र बनकर तमाशा देखते रहा। समय, काल और परिस्थिति भले ही बदल गई है, लेकिन वर्तमान में भी महिलाओं के साथ अत्याचार लेश मात्र कम नहीं हुए हैं। देश अमृत काल के सुहाने सपनों में गुम है। हम मंगल और चांद को फतह करने की जुगत में लगे हैं। इन सबके बावजूद मानवता है, जो मंगल और चांद की ऊंचाइयों पर पहुँचने के ख्वाब के बावजूद रसातल में पहुँच गई है।
ऐसे में भले इसरो में महिला वैज्ञानिकों का वर्चस्व बढ़ गया हो। महिलाएं दुनियाभर में अपना परचम लहरा रही हो, लेकिन यह भी सच्चाई है कि पिता, पुत्र या पति, सबके मरने पर स्त्री की ही चूड़ियां तोड़ी जाती है और उसे ही पीड़ा दी जाती है। एक स्त्री ही अक्सर ताने का शिकार होती है। फिर इन परिस्थितियों को देखते हुए स्त्रियों के लिए यही कविता प्रेरणादायी लगती है कि, ‘सुनो द्रौपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद न आएंगे।’ सचमुच में मणिपुर में देश की बेटियों के साथ जिस तरह का अमानवीय व्यवहार किया गया है। उसे किसी भी सभ्य समाज के नजरिए से उचित नहीं ठहराया जा सकता है और विडंबना देखिए कि ये सब उसी देश में हो रहा है जहां नारी को देवी स्वरूपा मानकर उनकी पूजा की जाती है। लेकिन देवी तो छोड़िए साहब! यहां तो महिलाओं को इंसान तक नहीं समझा जा रहा है।