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- डा. विशेष गुप्ता
महिला सशक्तिकरण के बढ़ते विस्तार के सामने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा आज देश व समाज में सक्रिय विमर्श का हिस्सा नहीं पा रही है। वह इसलिए क्योंकि भारतीय समाज में महिलायें एक लंबे काल तक अवमानित, यातना और शोषण की शिकार रहीं हैं। इसमें सामाजिक परम्परा,संस्थागत रीति-रिवाज और समाज में प्रचलित प्रतिमानों का महिलाओं के उत्पीड़न में योगदान भी कम नहीं रहा है। उसी के सापेक्ष वर्तमान में महिलाओं को अब पुरुषों के जीवन में महत्वपूर्ण,शक्तिशाली और अर्थपूर्ण सहयोगी माना जाने लगा है। देश की आजादी के बाद महिलाओं के पक्ष में बनाये गये कानूनों, शिक्षा का विस्तार और महिलाओं में बढ़ती आर्थिक स्वतंत्रता के बावजूद भी देश की असंख्य महिलायें आज भी हिंसा की शिकार हैं।
महिलाओं के प्रति शारीरिक हिंसा, अपहरण, यौन क्रूरता, महिला को जलाना और उस पर तेजाब फेंकने जैसी घटनायें आज भी सुनने और पढ़ने को मिल रहीं हैं। इसी संदर्भ से जुड़ी राष्ट्रीय रिकार्ड ब्यूरो ﴾एनसीआरबी) 2022 के आंकड़ों से जुड़ी हालिया रिपोर्ट गौरतलब है। इस रिपोर्ट से साफ है कि देश में महिलाओं के विरुद्ध चार प्रतिशत और बच्चों के विरुद्ध अपराधों में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इन घटनाओं से जुड़ी आज हर घण्टे 51 एफआईआर दर्ज हो रहीं हैं। इसी के साथ-साथ साईबर अपराधों के मामलों में भी 24.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है।
एनसीआरबी से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में लगातार तीन सालों में वृद्धि दर्ज की गयी है। मसलन 2022 में महिलाओं के विरुद्ध तमाम अपराधों से जुड़े कुल 4,45,256 मामले दर्ज किये गये,जो 2021 व 2020 में क्रमशः 4,28,278 व 3,71,503 रहे थे। इन आॅकड़ों में आगे खुलासा होता है कि 20 लाख से अधिक आबादी वाले 19 महानगरों में महिला अपराध के 48755 मामले दर्ज हुए,जबकि 2021 में यह आंकड़ा 43414 ही रहा था। इससे ज्ञात होता है कि अहमदाबाद, बेंगलुरु, चैन्नई, कोयम्बटूर, दिल्ली, गाजियाबाद, हैदराबाद, इंदौर, जयपुर, कानपुर, कोच्चि, कोलकाता, मुबंई, पुणे व नागपुर जैसे शहर महिला सुरक्षा के लिहाज से बहुत संवेदनशील पाये गये हैं।
देखा जाय तो महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के इतिहास के सफर में परम्परागत सामजिक व्यवस्था में समाहित एक वैचारिकी रही है जो पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कमतर आॅकती रही है। लेकिन यह भी सच है कि जैसे-जैसे महिलायें सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक व राजनीतिक विकास के क्षेत्र में कदम बढ़ाती हैं,उसी के सापेक्ष महिलाओं के विरुद्ध हिंसा करने वाली ताकतें कमजोर पड़ने लगती हैं। यह सच है कि आज देश में अधिकांश कानून महिलाओं के पक्ष में है और देश के विकास में भी उनकी हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही हैं।
एनसीआरबी के आंकड़े भी बताते हैं कि जिन राज्यों में महिला सुरक्षा से जुड़े कानूनों को लागू करने में जीरो टाॅलरेन्स की नीति है और महिला विकास के विभिन्न उपादानों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, वहां उन राज्यों में महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध घटे हैं। उत्तर प्रदेश इसका जीता-जागता उदाहरण है। एनसीआरबी के आंकड़ों में भी यह बात दर्ज है कि प्रदेश में महिला संबधी अपराधों को लेकर 2020 में 65,743 मामले दर्ज हुए,जबकि 2021 में इनकी संख्या घटकर 56,683 रह गई। आज प्रदेश में आरोपियों को सजा दिलाने की दर राष्ट्रीय औसत 25.3 के मुकाबले यहाॅ 180 फीसदी से भी अधिक है। इस मामले में आज यूपी प्रथम स्थान पर है।
आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में 70.8 प्रतिशत मामलों में आरोपितों को सजा दिलाई गई है। दुष्कर्म के मामले में यूपी आज 24 वें सथान पर है। यहाॅ दुष्कर्म के 3690 मुकदमें दर्ज किये गये जो देश में 4.7 प्रतिशत की तुलना में 3.3 प्रतिशत ही हैं। दूसरी ओर दुष्कर्म के मामले में उत्तराखण्ड़ की दर 15.5 प्रतिशत, चंड़ीगढ़ की 13.9 तथा राजस्थान की भी यह दर 13.9 रही है। एनसीआरबी के आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन में यह भी पाया गया कि भाजपा शासित राज्यों में कानून व्यवस्था के नियन्त्रण में रहने पर वहाॅ महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध और हिसां में कमी आई है। यूपी के अलावा असम को देखें तो वहाॅ ऐसे मामलों में 50 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। यहाॅ तक की अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराधों को रोकने में भी भाजपा शासित प्रदेशों को रिकार्ड बेहतर रहा है। वर्तमान में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को विजयी बनाने में महिलाओं का बड़ा योगदान वहाॅ की बिगड़ी कानून व्यवस्था पर करारी चोट करते हुए मत प्रदान करना इसका स्पष्ट उदाहरण रहा है।
अब सवाल उठता है कि महिला सशक्तिरण के देश व प्रदेशों के स्तर से किये जा रहे सघन प्रयासों के बाद भी वह कौन सी प्रवृत्ति है जो महिला के विरुद्ध अपराध करने को उकसाती है। इस संदर्भ में परिवार का समाजशास्त्र बताता है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराध एक प्रकार की प्रवृति है जो हिंसा-प्रवृत व्यक्तित्व में समाहित रहती है। ऐसे लोग शक्की मिजाज, वासनामय, विवकहीन, व्यभिचारी, भावनात्मक रूप से अशांत और ईष्यालु प्रकृति के होते हैं। हिंसा करने वाले व्यक्ति में ये लक्षण उसके प्रारंभिक जीवन में विकसित होते हैं। मोबाइल का विस्तार और समूह संचार के आगोश से निकलता हिंसात्मक व्यवहार इस हिंसा को बढ़ाने में आग में घी का काम करता है।
समाजशास्त्रीय शोध बताते हैं कि ऐसे हिंसा-प्रवृत्त लोग दुखी पारिवारिक जीवन,भावनात्मक तिरस्कार व शारीरिक प्रताड़ना जैसे कारकांे से प्रभावित पाये गये है जो दुखी जीवन की हताशा के कारण महिलाओं पर वर्चस्व कायम करने के कारण अपराध की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसके साथ ही केन्द्र व राज्य सरकारों के महिला व बाल कल्याण विभागों को भी समग्र रूप में महिलाओं व बच्चों से जुड़ी संस्थाओं को साथ लेकर इनसे जुड़े कानूनों की जानकारी तथा इन्हीं से जुड़ी योजनाओं में भी उनकी हिस्सेदारी बढ़ानी होगी। ध्यान रहे देश की आजादी के 100 वर्ष पूर्ण होने के बाद 2047 में प्रधानमंत्री ने जिस विकसित भारत का खाका खींचा है उसका रास्ता आधी आबादी के पूर्ण संतुलित और महिला बराबरी के बहुआयामी विकास से होकर ही निकलेगा। इसके संकेत मिलने भी लगे हैं। इसलिए महिलाओं की बढ़ती ताकत की ओट में पनपने वाली महिलाओं के विरुद्ध आपराधिक हिंसा पर भी पूर्ण कर्तव्यनिष्ठा के साथ एक विमर्श की आवश्यकता है।