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थम नहीं रहा चीतों की मौत का सिलसिला

  • प्रमोद भार्गव
    अफ्रीकी देशों से लाकर कूनो अभ्यारण्य में बसाए गए चीतों की लगातार हो रही मौतों से उनकी निगरानी, स्वास्थ्य और मौत के लिए आखिर कौन जिम्मेबार है? यह सवाल बड़ा होता जा रहा है। जिस तरह से चीते अकाल मौत का ‘शिकार हो रहे हैं, उससे लगता है, उच्च वनाधिकारियों का ज्ञान चीतों के प्राकृतिक व्यवहार से लगभग अछूता है। इसलिए एक-एक कर छह वयस्क और तीन शावकों की मौत पांच माह के भीतर हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी चीता परियोजना के लिए यह बड़ा झटका है। विडंबना है कि इन चीतों की वास्तविक मौत के कारण भी पता नहीं चले हैं।
    चीतों की मौत का कारण कॉलर आईडी से हुआ संक्रमण हैं, या जलवायु परिवर्तन एकाएक यह कहना मुश्किल है? हालांकि केंद्रीय वनमंत्री भूपेंद्र यादव ने मौत की हकीकत पर पर्दा डालने की दृष्टि से कह दिया कि ‘चीतों की मौत का मुख्य कारण कोई बीमारी नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला संक्रमण है। चूंकि नामीबिया और श्योपुर का जलवायु अलग-अलग है और पहला वर्ष होने के कारण उन्हें यहां के वातावरण में ढलने में कठिनाई आ रही है। मानसूनी असंतुलन के कारण हम 9 चीतों का नुकसान उठा चुके हैं। चीतों की सुरक्षा को लेकर केंद्र सरकार गंभीर है, क्योंकि यह लंबी परियोजना है और हर वर्ष चीते आने हैं।‘जबकि कुछ चीतों की मौतें कारण का स्पष्ट उल्लेख कर रही हैं। मादा चीता ज्वाला के शावकों के साथ देख-रेख में पूरी तरह लापरवाही बरती गई। इन शावकों का वजन जब 40 प्रतिशत रह गया और ये शिथिल हो गए, तब इनके उपचार का ख्याल वनाधिकारियों को आया। नतीजतन तीन शावक काल के गाल में समा गए। मादा चीता दक्षा को जोड़ा बनाने की दृष्िट से दो नर चीतों के साथ छोड़ दिया गया। जबकि ऐसा कभी किया नहीं जाता कि एक मादा के पीछे दो नर छोड़ दिए जाएं। नतीजा निकला कि संघर्ष में दक्षा कि मौत हो गई। इन सब स्पष्ट कारणों के चलते ही नामीबिया से आए विशेषज्ञ चिकित्सक सच्चाई तक न पहुंच जाए, इसलिए उनके साथ जिम्मेबार अधिकारी असहयोग बनाए हुए है। अब कूनों में 14 चीते शेष हैं, जिनमें सात नर, छह मादा और एक शावक हैं। इनमें निर्वा नाम की एक मादा लपता है। इसे ट्रेंकुलाइज कर बाड़े में लाने की कोशिश हो रही है। हालांकि निर्वा की रेडियो काॅलर खराब हो गई है, इसलिए कई दिन से यह लोकेशन ट्रांसमीटर के दायरे में ही नहीं आ रही है। कुछ जानकारों का मानना है कि इस चीते की मौत हो चुकी है।
    दरअसल यदि अतीत में जाएं तो पता चलता है कि विदेशी चीतों को भारत की धरती कभी रास नहीं आई। इनको बसाने के प्रयास पहले भी होते रहे हैं। एक समय चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 के आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था। जिसे मार गिराया गया। चीता तेज रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट एवं लोचपूर्ण देहदृष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह जंगली प्राणियों में सबसे तेज दौड़ने वाला धावक है। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया। हालांकि भारत में चीतों के पुनर्वास की कोिशश असफल रही हैं। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से 1993 में दिल्ली के चिड़ियाघर में चार चीते लाए गए थे, लेकिन छह माह के भीतर ही ये चारों मर गए। चिडि़याघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किये गये थे, लिहाजा उम्मीद थी कि यदि इनकी वंशवृद्धि होती है तो देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभ्यारण्यों में ये चीते स्थानांतरित किये जाएंगे। हालांकि चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना ही होती है। नतीजतन प्रजनन संभव होने से पहले ही चीते मर गए।
    बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाया जाने वाला चीता अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगती राष्ट्रीय उद्यान और नामीबिया के जंगलों में गिने-चुने चीते हैं। प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है। यह प्रकृति के समक्ष वैज्ञानिक दंभ की नाकामी है। जूलाॅजिकल सोसायटी आॅफ लंदन की रिपोर्ट को मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो गए थे। अब केवल 7100 चीते पूरी दुनिया में बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासीमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब इनकी संख्या गिनती की रह गई है।
    बीती सदी के पांचवे दशक तक चीते अमेरिका के चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणी विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया, परंतु किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी, जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों में आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ, तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की इच्छा नहीं रखते हैं। भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य बस्तर-सरगुजा के घने जंगलों में थे, जिन्हें 1947 में देखा गया था। इनके संरक्षण के जरूरी उपाय हो पाते, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों का शिकार,शिकार के शौकीन राजा-महाराजाओं ने करके वन की इस तेज गति के ताबूत में अंतिम कील ठोंक दी। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया था।
    हमारे देश के राजा-महाराजाओं को घोड़ों और कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता शावकों को पालकर इनसे जंगल में शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे, तो प्रशिक्षित चीतों को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। इनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती थी, जिससे यह किसी मामूली वन्य जीव पर न झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे में आ जाता था, तो चीते की आंखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था। पलक झपकते ही शिकार चीते के जबड़े में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी एक आश्चर्यजनक रोमांच की बात रही होगी ?

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