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सभी विघटनकारी शक्तियों को विफल करने का मंत्र- भारत माता की भक्ति

  • लोकेन्द्र सिंह
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परंपरा में विजयादशमी के उत्सव पर सरसंघचालक के उद्बोधन का विशेष महत्व है। विजयादशमी हिन्दुओं का बड़ा सामाजिक उत्सव होने के साथ ही संघ की स्थापना का उत्सव भी है। इस उत्सव में सरसंघचालक जी का जो उद्बोधन होता है, उसमें स्वयंसेवकों के लिए पाथेय रहता है। इसके साथ ही उनके भाषण में समसामयिक मुद्दों को लेकर समाज की सज्जन शक्ति के लिए भी संदेश रहता है। चूँकि आज संघ पर सबकी निगाहें रहती हैं और विभिन्न विषयों को लेकर संघ के दृष्टिकोण को जानने की भी अपेक्षा रहती है, इसलिए भी विजयादशमी पर होनेवाले सरसंघचालक के उद्बोधन को लेकर सबको विशेष उत्सुकता रहती है।
    सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने अपने उद्बोधन में सब प्रकार की बातों को ध्यान रखा। उन सब मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिन पर देशभर में चर्चाएं चल रही हैं। विजय का पर्व है, इसलिए देशवासियों के मन में उत्साह का संचार हो इसलिए उन्होंने अपने उद्बोधन की शुरुआत भारत की उपलब्धियों के साथ ही की। वीरांगना रानी दुर्गावती की 500वीं जयंती, छत्रपति शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के 350वें वर्ष, छत्रपति शाहू जी महाराज की 150वीं जयंती और संत श्रीमद् रामलिंग वल्ललार की 200वीं जयंती का उल्लेख करके उन्होंने यही संदेश दिया है कि अमृतकाल में जब हम भारत के ‘स्व’ के जागरण का उपक्रम कर रहे हैं, तब हमें ऐसी महान विभूतियों के जीवन से अवश्य ही प्रेरणा लेनी चाहिए। एक सामर्थ्यशाली राष्ट्र के निर्माण के लिए व्यवहार से लेकर व्यवसाय में और व्यक्ति से लेकर राष्ट्र की नीति में, ‘स्व’ दिखना चाहिए। देश एक करवट ले रहा है। सांस्कृतिक पुनर्जागरण का एक वातावरण भारत में दिखायी देने लगा है। अमृतकाल को अवसर मानकर एक बार फिर भारत अपने ‘स्व’ की ओर बढ़ रहा है। विश्व पटल पर भी अब भारत अपने ‘स्व’ के साथ अभिव्यक्त हो रहा है। इसके प्रमाण स्वरूप सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने ‘जी-20 समूह’ पर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की छाप को उल्लेखित किया। यह तो स्पष्ट ही दिखायी देता है कि भारत की अध्यक्षता में विश्व के सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के समूह का दृष्टिकोण ही बदल गया। यह समूह अब तक अर्थ को केंद्र में रखकर दुनिया का विचार करता था, लेकिन अब इसका केंद्र बिन्दु मानव हो गया है। नि:संदेह, सरसंघचालक जी ने ठीक ही कहा कि “भारत के विशिष्ट विचार एवं दृष्टि के कारण संपूर्ण विश्व के चिंतन में वसुधैव कुटुम्बकम् की दिशा जुड़ गई। जी-20 का अर्थकेन्द्रित विचार अब मानव केन्द्रित हो गया”।
    सबकुछ स्पष्ट कर देंगे ये प्रश्न : देश की प्रगति को बाधित करने के प्रयत्नों में लगी शक्तियों की ओर भी समाज की सज्जनशक्ति का ध्यान आकर्षित कराने का प्रयास सरसंघचालक जी ने किया। उनके द्वारा उठाए गए ये प्रश्न विचारणीय हैं कि लगभग एक दशक से शांत मणिपुर में अचानक यह आपसी फूट की आग कैसे लग गई? क्या हिंसा करने वाले लोगों में सीमापार के अतिवादी भी थे? अपने अस्तित्व एवं भविष्य के प्रति आशंकित मणिपुरी मैतेयी समाज और कुकी समाज के इस आपसी संघर्ष को सांप्रदायिक रूप देने का प्रयास क्यों और किसके द्वारा हुआ? वर्षों से वहाँ पर सबकी समदृष्टि से सेवा करने में लगे संघ जैसे संगठन को बिना कारण इसमें घसीटने का प्रयास करने में किसका निहित स्वार्थ है?
    इस सीमा क्षेत्र में नागाभूमि व मिजोरम के बीच स्थित मणिपुर में ऐसी अशांति व अस्थिरता का लाभ प्राप्त करने में किन विदेशी सत्ताओं को रुचि हो सकती है? क्या इन घटनाओं का कारण परंपराओं में दक्षिण पूर्व एशिया की भू- राजनीति की भी कोई भूमिका है? देश में मजबूत सरकार के होते हुए भी यह हिंसा किन के बलबूते इतने दिन बेरोकटोक चलती रही है? गत 9 वर्षों से चल रही शान्ति की स्थिति को बरकरार रखना चाहने वाली राज्य सरकार होकर भी यह हिंसा क्यों भड़की और चलती रही? आज की स्थिति में जब संघर्षरत दोनों पक्षों के लोग शांति चाह रहे हैं, उस दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठता हुआ दिखते ही कोई हादसा करवा कर, फिर से विद्वेष एवं हिंसा भड़काने वाली ताकतें कौन सी हैं? ये प्रश्न ऐसे हैं, जो भारत के प्रति भक्ति का भाव रखनेवाले प्रत्येक भारतीय नागरिक के मन में पहले दिन से उठ रहे हैं। वह भी इन प्रश्नों के उत्तर खोज रहा है। वह उत्तर तक पहुँच भी रहा है। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में जब हिंसा के कारण सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त है, तब वहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जमीन पर उतरकर, बिना किसी भेदभाव के, दोनों ही वर्गों के बीच राहतकार्य संचालित कर रहे हैं। इसलिए संघ मणिपुर की हिंसा का सच अधिक नजदीक से देख पा रहा है। स्मरण रखें कि देश में जिस प्रकार का हिन्दुत्व का वातावरण बना है और राष्ट्रीय विचार की सरकार सत्ता के केंद्र में है, ऐसे में समाजकंटक ताकतों के फलने-फूलने के अवसर समाप्त हो गए हैं।

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