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- रमेश शर्मा
आज जलियाँ वाला बाग नरसंहार को एक सौ तेइस वर्ष हो गये। इस दिन जनरल डायर के आदेश पर स्त्री-बच्चों सहित निर्दोष नागरिकों पर गोलियाँ चलीं थी और लगातार दस मिनट तक चलतीं रहीं थीं। इसमें तीन सौ से अधिक लोगों का बलिदान हुआ और लगभग डेढ़ हजार से अधिक लोग घायल हुये, घायलों में से भी अनेक लोगों ने बाद में प्राण त्यागे। यदि ये सब संख्या जोड़े तो मरने वालों के आकड़े आठ सौ के पार होते हैं। अंग्रेजों द्वारा भारत में किया गया यह नरसंहार पहला नहीं है। अंग्रेजी शासन काल में देश का ऐसा कोई प्रमुख स्थान नहीं जहाँ सामूहिक नरसंहार न हुआ हो। यदि सबकी गणना की जाए तो भारत में इस प्रकार किये गये सामूहिक नरसंहार की यह संख्या पचास से भी अधिक होगी जिनमें लाखों लोगों का बलिदान हुआ ।
जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ लेकर आया। उसके बाद भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष में तेजी आई। यह तेजी दोनो ंप्रकार के आंदोलन में देखी गई। अहिंसक और आलोचनात्मक संघर्ष में भी और क्रांतिकारी आंदोलन में भी। जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार के बाद मानों भारतीयों की सहनशक्ति जबाब दे गई थी। यह ठीक वैसा ही है जैसे जल से भरा हुआ प्याला एक बूँद पानी भी पचा नहीं पाता। एक अतिरिक्त बूँद और आने पर छलक उठता है। भीतर का पानी भी बाहर फेंकने लगता है। ठीक वैसे ही अंग्रेजों के आतंक से आकंठ डूबे भारतीय जन मानस में एक ज्वार उठ आया ।
इस घटना के बाद स्वाधीनता संघर्ष को एक नयी गति मिली और पूरा भारत उठ खड़ा हुआ । इससे पहले भी ऐसी घटनाएं स्वतंत्रता या स्वाभिमान संघर्ष के लिये निमित्त बनीं हैं। 1857 में भी यही हुआ था। 1857 में मंगल पांडे के बलिदान के बाद भारत में क्रांति की ज्वाला धधक उठी और पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का आरंभ हो गया । बलिदानी मंगल पांडे का प्रतिकार ही 1857 की क्रान्ति का मूल बना। इतिहास की वही पुनरावृत्ति जलियांवाला बाग कांड के बाद हुई ।
उस दिन जलियाँवाला बाग में लोग किसी संघर्ष के लिये एकत्र नहीं हुये थे। वैशाखी मनाने एकत्र हुये थे। यदि संघर्ष के लिये एकत्र होते तो महिलाओं और बच्चों को भी साथ क्यों ले जाते। हाँ यह बात अवश्य है कि वे अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति जागरूक थे। वहाँ एकत्र समूह संस्कृति और परंपरा निर्वाहन के संकल्प के साथ ही वहाँ एकत्र हुये थे । लेकिन अंग्रेजी फौज ने चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध फायरिंग आरंभ कर दी। इस कांड पर अंग्रेजों को खेद जताने में सौ साल लगे। 2019 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने पहली बार खेद जताया । इससे पहले अंग्रेजों ने इस घटना और इस तरह की तमाम घटनाओं को कभी गंभीरता से न लिया था। वे हर नरसंहार का औचित्य प्रमाणित करते रहे । अंग्रेजों या यूरोपियन्स ने ऐसे नर संहार केवल भारत में ही नहीं किये हैं । पूरी दुनिया में किये हैं।
इसका कारण यह है कि वे इस प्रकार के सामूहिक नरसंहार करने के आदि रहें हैं । मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक के लोग जिन भी देशों में भी गये, उन देशों में जाकर अपनी सत्ता स्थापित करने या स्थापित सत्ता को सशक्त करने के लिये नर संहार ही किये हैं । ऐसा कोई देश अपवाद नहीं । अमेरिका और अफ्रीका में अंग्रेजों के ऐसे नर संहार किये जाने की घटनाओं से भी इतिहास भरा है । अंग्रेज ही नहीं अन्य यूरोपियन्स समूहों द्वारा भी सामूहिक नरसंहार करना सामान्य बात है । भला यूरोप का ऐसा कौनसा देश है जहाँ यहूदियों का सामूहिक नर संहार न हुआ हो । लाखों यहूदियों का तड़पा तड़पा कर प्राणांत किया है । केवल भारत है, भारत की सनातन परंपरा है इन्ही लोगों ने विश्व बंधुत्व, परोपकार, सेवा और मानवीय मूल्यों की स्थापना की बात की । भारतीय जन जब गये, जहाँ गये, दुनियाँ जिस कौने में गये, शाँति का संदेश लेकर ही गये । न तो सत्ता हथियाने के षडयंत्र चलाये और न लूट बलात्कार किये । यदि हम इतिहास की घटनाओं का विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि सनातन परंपरा का अनुपालन करने वाले भारतीयों के अतिरिक्त अन्य सभी समूहों द्वारा की गई प्रेम, शाँति और भाई चारे की बातें मानों बनावटी रहीं, दिखावा रहीं । वे सेवा शाँति की बात करके अपने निश्चित अभियान में सदैव लगे रहे । ऐसा आज की दुनियाँ में भी देख सकते हैं । लेकिन भारतीय सदैव इससे अलग रहे । वैदिक आर्यों से लेकर स्वामी विवेकानंद तक जो जहाँ गया, सबसे जीवन का संदेश ही दिया । पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब माना और प्रकृति से जुड़कर सह अस्तित्व के साथ जीने की शिक्षा दी । आज के आधुनिक युग में भी यदि भारतीय बच्चे कहीं जा रहे हैं तो सेवा के लिये जा रहे हैं । आज की दुनियाँ में भला ऐसा कौनसा ऐसा संस्थान है जो भारतीयों की सेवा से पुष्पित और पल्लवित न हो रहा हो । सुविख्यात वैज्ञानिक संस्थान नासा से लेकर विलगेट्स के औद्योगिक समूह तक सबकी नींव में भारतीय हैं । लेकिन अन्य का चरित्र और संस्कार ऐसे नहीँ हैं । उनका आरंभिक स्वरूप, बातचीत और व्यवहार भले कैसा हो पर बहुत शीघ्र वे शोषण और दमन पर उतर आते हैं । भारत में लगभग सभी विदेशी आगन्तुकों ने ऐसा ही किया । यदि उनके विचारक पहले समूह बनाकर आये तो भी वे भूमिका के लिये आये थे । जो बाद के हमलावरों के आने पर स्पष्ट हुआ । अंग्रेजों ने भी यही शैली अपनाई । अंग्रेजों ने सबसे पहले विचारक भेजे, दक्षिण भारत में चर्च बनाया, दूसरे क्रम पर व्यापार की बात हुई और अंततः सत्ता शोषण और दमन का आरंभ । यही है अंग्रेजों का इतिहास ।
अंग्रेजों ने जो आरंभ सबसे दक्षिण भारत से किया वही शैली उन्होंने पूरे भारत में अपनाई । पहले चर्च, फिर व्यापार फिर सेना । भारत के मध्य भाग के शासकों की हो या दिल्ली के दरबार की सब जगह एक ही शैली । दिल्ली और पंजाब पर कब्जा करने में अंग्रेजों को लगभग पौने दो सौ साल लगे । मुगल दरबार में अंग्रेजों की आमद 1600 के बाद आरंभ हुई और 1803 में दिल्ली पर अधिकार कर लिया । उनका चौथा चरण सामूहिक दमन नर संहार और लूट का ही रहा है । जलियांवाला बाग की भाँति ही अंग्रेजों द्वारा सामूहिक दमन और नर संहार से भारत का हर कोना रक्त रंजित है । अंग्रेजों ने एक दर्जन से अधिक नर संहार तो केवल वनवासी क्षेत्रों में किये थे । कौन भूल सकता है गुजरात के साँवरकाठा काँड को । अंग्रेजों ने वनवासियों को समस्या सुनने के बहाने एकत्र किया और गोलियों से मून दिया । इस काँड में भी