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छीजती संवेदनाएं और गुम होती बच्चियां!

  • सोनम लववंशी
    समाज 21वीं सदी में विकास के नित्य नए आयाम गढ़ रहा है। किंतु आज भी वैश्विक पटल पर महिलाओं की स्थिति दयनीय है। हम क्यों इक्कीसवीं सदी में भी संविधान के मूल्यों समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय को अपनी जिंदगी का हिस्सा नहीं बना पाए हैं? क्यों अनेक नारीवादी आंदोलन के बावजूद स्त्री-पुरुष की समानता का तर्क यथार्थ का रूप नहीं ले सका? महिलाओं को लेकर हमारे देश में बहस होती रहती है, लेकिन वास्तविकता इसके उलट ही नजर आती है। आधी आबादी को पूरा हक दिलाने की थोथी राजनीति देश की महिलाएं आजादी के वक्त से देखती आ रही हैं, लेकिन आजाद भारत में आज भी महिलाएं गुलामी की जंजीरों में ही बंधी हैं। महिलाओं के साथ भेदभाव तो उनके जन्म के पूर्व ही शुरू हो जाता है। ना जाने कितनी मासूम जिंदगी को जन्म तक नहीं लेने दिया जाता है। अगर जन्म ले भी लेती है तो बेटों के समान शिक्षा नहीं दी जाती है। उन्हें बचपन से ही समझाया जाता है कि वह पराया धन है। एक मासूम सी जान को न जाने कितनी मौत मारा जाता है। कभी संस्कारों के नाम पर तो कभी रूढ़िवादी सोच के नाम पर! आज भी समाज महिलाओं को पिता और पति की सम्पत्ति के रूप में ही देख रहा है। नारी आज भी किसी की बहन, बेटी या पत्नी तो हो सकती है… पर शायद इंसान नहीं? आज भी समाज नारी को भोगविलास की वस्तु से आगे बढ़कर कुछ और देखना नहीं चाहता है। जब तक समाज इस ग्रसित सोच से आगे नहीं निकलेगा तब तक महिलाओं को उचित सम्मान नहीं मिल सकता।
    अजीब विडंबना है कि जिस देश में नारी को नारायणी की तरह पूजने की परम्परा है। उसी देश में नारी तिरस्कृत हो रही है। उसे समाज में सिर्फ भोगविलास की वस्तु भर समझा जा रहा है। ये कटु सत्य है कि आज भी समाज में नारियां गुमनामी के अंधेरे में जीवन जीने को मजबूर हैं। ये कोई कोरी कल्पना भर नहीं है बल्कि पिछले 2 साल के आंकड़े बताते हैं कि बीते 2 सालों में करीब 13.13 लाख बेटी और महिलाएं गायब हुई हैं। यह डेटा एनसीआरबी यानी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का है। यह सभ्य समाज के माथे पर कलंक तो है ही कि देश की 13 लाख महिलाएं लापता हो जाए और उनके लिए कोई फिक्रमंद ही न हो। यह हमारे प्रशासन की नाकामी नहीं तो और क्या है? भले ही हमारे संविधान का अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकार की बात कही गई हो। लेकिन समाज में पितृसत्तात्मक सोच का वर्चस्व दिखाई देता है। जिस कारण से देश की महिलाएं समान हक के लिए अभी भी संघर्षरत हैं। ऐसी तमाम रिपोर्ट समय-समय पर प्रकाशित होती रही है, जिसके माध्यम से महिलाओं की दयनीय स्थिति बयां की जाती है। इन सबके बावजूद हम सामाजिक और मानवीय संवेदनाओं के स्तर पर कोई ठोस कदम उठाते हुए नजर नहीं आते।
    एनसीआरबी की रिपोर्ट की माने तो देश में रोजाना 246 लड़कियां और 1027 महिलाएं गायब हो रही हैं। सोचिए जिस देश में महिला सुरक्षा के नाम पर बड़े-बड़े ढकोसले किए जाते हो। कठोर कानून होने की बात कही जाती है, बावजूद इसके रोजाना 87 महिलाओं के साथ रेप हो जाता है और तो और सिर्फ मध्यप्रदेश में एक वर्ष के दौरान 13034 लड़कियां और 55704 महिलाएं गायब हो जाएं फिर स्थिति विकट मालूम पड़ती है। ऐसे में राज्य दर राज्य देखें तो बच्चियों के गायब होने का आंकड़ा विचलित और द्रवित करने वाला है, लेकिन सरकार किसी भी दल या झंडे तले चल रही हो। शायद ही सियासतदानों को इन गुम होती बच्चियों और महिलाओं की फिक्र है। फिक्र होती तो सिर्फ खानापूर्ति नहीं होती। कोई भी व्यक्ति एक राष्ट्र की अमूल्य निधि है। देश के विकास में हर व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत और सामूहिक योगदान होता है। इन सबके बावजूद रहनुमाई व्यवस्था है। जो चिरनिद्रा में सोई है। जिसे लोकतंत्र में मततंत्र की उर्वरा फसल से लेना-देना है और उसके लिए एक व्यक्ति का 18 साल होना जरूरी है। फिर चाहें वो स्त्री हो या पुरुष, लेकिन गायब होने वालों में से अधिकतर लोकतांत्रिक व्यवस्था में तत्कालिक फायदा राजनीतिक दलों को पहुंचाने की स्थिति में नहीं होते। यही एक वजह है कि गुम होती बच्चियों के प्रति फिक्रमंद हमारी व्यवस्था और जिम्मेदार रहनुमा नहीं होते। लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य कहिए या राष्ट्रवाद पर इठलाती रहनुमाई व्यवस्था का चौपटराज कि एक तरफ विगत कुछ वर्षों में लाखों बच्चियां गायब हो गई और हम भारत भाग्य विधाता गीत पर थिरकते ही रह गए। हुजूर ये वक्त आजादी के 75 बरस पर जश्न मनाने या थिरकने का नहीं, बल्कि सिहरन पैदा करने वाला है क्योंकि आजादी के इतने बसंत बीत जाने के बाद भी एक महिला, एक बच्ची का जीवन सुरक्षित नहीं है। सुरक्षित नहीं है संवैधानिक व्यवस्था में दिए गए अधिकार। सुरक्षित नहीं है किसी का जीवन, किसी का ख्वाब, किसी का वजूद! फिर किस बात का गुमान है हमारे लोकतंत्र के सिपह-सालार और संवैधानिक अधिकारों के झंडे-बरदार को आप अपने बयानों में ही सब कुछ बेहतर, एकदम व्यवस्थित बताते रहिए, लेकिन कहीं न कहीं स्थिति विकट है उस समाज के लिए, उस परिवार के लिए, उन माता-पिता के लिए। जिसने मंगल और चांद पर पहुंचते भारत में अपनों को खो दिया।

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