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आंचलिक उपन्यास के सफल रचनाकार

  • प्रभात किशोर
    आंचलिक उपन्यास के माध्यम से ग्रामीण भारत में घटित घटनाओं के सजीव चित्रण एवं क्षेत्रीय बोली को हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में लाने हेतु जिन रचनाकारों को याद किया जाता है उनमें फनीश्वर नाथ रेणु प्रमुख हैं । रेणु जी प्रेमचंद युग के उपरान्त आधुनिक हिन्दी साहित्य के सबसे सफल एवं प्रेरक रचनाकारों में गिने जाते हैं । सन 1954 में रचित ‘‘मैला आंचल‘‘ नामक उनके पहले उपन्यास को प्रेमचंद के ‘‘गोदान‘‘ के पश्चात सबसे प्रख्यात हिन्दी उपन्यास की ख्याति प्राप्त हुई और सन 1970 में उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्मश्री‘‘ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। फनीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के तत्कालीन पूर्णिया जनपद (वर्तमान में अररिया जनपद) अंतर्गत औंराही हिंगना ग्राम में एक निर्धन कुर्मी परिवार में हुआ था । प्रारम्भिक शिक्षा फारबिसगंज एवं अररिया में पूरी करने के उपरान्त वे विराटनगर (नेपाल) चले गए, जहां कोईराला परिवार के साथ रह कर उन्होंने विराटनगर आदर्श विद्यालय से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की । सन 1942 मे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आई0ए0 की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। सन 1950 में उन्होने नेपाल में राजशाही के खिलाफ नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया, जिसके उपरान्त बाद के दिनों में वहां जनतंत्र की स्थापना हुई । 1952-53 में वे भीषण रूप से रोगग्रस्त हो गये जिसके उपरान्त लेखन विधा की ओर उनका झुकाव हुआ । उनके इस काल की झलक उनकी कहानी “तबे एकला चलो रे “ में मिलती है ।
    रेणुजी ने हिन्दी साहित्य में “आंचलिक कथा” की नींव डाली । उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता एवं हर भोलेपन को शब्दों में पिरोने की सफल कोशिश की गयी है। उनकी भाषा शैली में एक जादुई सा असर है जो पाठकों को अपने साथ बांधकर रखता है। उनका साहित्य ग्रामीण विविधताओं को गहराई से पकड़ता है। वे एक उद्भुत किस्सागो थे और उनकी रचनाएं पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानों कोई साक्षात कहानी सुना रहा हो । ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपनी कथा साहित्य में बड़ा हीं सर्जनात्मक प्रयोग किया है। रेणुजी का लेखन प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परम्परा को आगे बढ़ाता है और इस कारण उन्हें आजादी के बाद के प्रेमचंद की संज्ञा दी जाती है। उनकी लेखन शैली वर्णनात्मक होती थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोंच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। रेणुजी को उनके उपन्यास “मैला आंचल” से हिन्दी साहित्य में अप्रीतम ख्याति मिली। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातोंरात हिन्दी के एक मूर्धन्य कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। रेणुजी के द्वारा जहां मैला आंचल (1954), परती परिकथा (1957), दीर्घतपा (1964), जुलूस (1966), कितने चैराहे (1966), कलंक मुक्ति (1972), पलटू बाबू रोड (1979), इस जल प्रलय में, जुलूस एवं जनाजा उपन्यासों की रचना गयी, वहीं एक ठुमरी (1959), अग्निखोर (1973), एक श्रावणी दोपहरी की धूप (1984) तथा अच्छे आदमी कथा संग्रह लिखे गए । उनके संस्मरणों में ऋण जल-धन जल, वन तुलसी की गंध, श्रुत अश्रुत पूर्वे, तोतापुर, समय की शिला पर, आत्म परिचय तथा रिपोर्ताज में नेपाली क्रान्ति कथा प्रसिद्ध हैं । उनकी प्रसिद्ध कहानियों में मारे गए गुलफान, एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, रसप्रिया, ठेस, नैना जोगिन, संवदिया, पुरानी कहानी: नया पाठ, पहलवान की ढोलक, अक्ल और भैंस, अग्नि संचारक, अतिथि सत्कार, अथ बालकाण्डम, अभिनय, पार्टी का भूत, वंडरफूल स्टूडियो, विकट संकट, एक अकहानी का सुपात्र प्रमुख है । रेणुजी की कहानी “मारे गए गुलफान” पर सन 1966 में चर्चित फिल्म “तीसरी कसम” बनायी गयी जिसके निर्माता प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र एवं निदेशक बासु भट्टाचार्य थे ।

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