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नया स्वरुप धारण करती कांवड़ यात्राओं का समाज शास्त्र

  • डा. विशेष गुप्ता
    कोरोना काल के बाद श्रावण मास की कांवड़ यात्राओं का तीव्र क्रम जारी है। 12 अगस्त को चौथा सोमवार बीत चुका है। अंतिम सोमवार 19 अगस्त को है। उसी दिन रक्षाबंधन भी है। लिहाजा उस दिन कांवड़ यात्रा समापन पर रहेगी। दरअसल सावन का यह पूरा महीना भगवान शिव की भक्ति और आराधना एवं समर्पण से जुड़े सनातन धार्मिक इतिहास का एक हिस्सा है। इस मास में शिवलिंग पर गंगाजल से जलाभिषेक करना िशव भक्ति की प्रमुख गोचर गतिविधि मानी जाती है। इस प्रक्रिया को अमली जामा पहनाने के लिए भक्तगण देश की विभिन्न पवित्र नदियों से जल इकठ्ठा करके प्रसिद्ध िशवलिंगों पर जलाभिषेक करते हुए गृह स्थल पर जाकर अपनी कांवड़ यात्रा सम्पन्न करते हैं। जो भक्त इस कांवड़ यात्रा में शामिल नहीं हो पाते, वे कांवड़ यात्रा के बीच कांवडि़यों के ठहरने व उनके लिए खान-पान की व्यवस्था करके इस पुण्य में शामिल होते हैं। कांवड़ यात्रा का इतिहास बताता है कि जो शिव भक्त कांवडि़या अर्थात भोला बनकर अपनी यात्रा तय करते हैं, वे जप, तप व व्रत इन तीनों त्यागमयी वृत्तियों को एक साथ पूर्ण करते हैं। अतः स्पष्ट है कि शिव भक्त अपनी इस यात्रा के दौरान मन्त्रों के उच्चारण के माध्यम से शारीरिक कष्टों को सहन करते हुए जलाभिषेक तक अन्न ग्रहण न करने का व्रत पूर्ण करते हैं। अतः कांवड़ यात्रा में हिस्सा लेने वाले शिव भक्तजनों से अपने अन्तःकरण को शुद्ध रखने के साथ-साथ उनसे शान्त व सहनशील बनने की अपेक्षा भी की जाती है। इसके दर्शन के वाबजूद भी पवित्र लक्ष्य को लेकर धार्मिक यात्रा पर निकले शिव भक्तों केबीच आक्रोश व उग्रता के अंश देखने को मिल ही जाते हंै।
    इतिहास साक्षी है कि इस कांवड़ परम्परा की प्रष्ठभूमि में लोगों को पवित्र नदी, पहाड़ व पवित्र स्थानों की प्राकृतिक महत्ता को समझाते हुए प्राकृतिक संरक्षण का सन्देश देना भी था। साथ ही चारों दिशाओं के लोगों में धार्मिक आस्थाओं की पूर्ति के साथ-साथ देश के लोगों से सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद स्थापित करना भी था। केवल इतना ही नहीं इस कांवड़ यात्रा के माध्यम से सावन मास में जहां एक ओर भगवान शिव की आस्था के प्रति समर्पण भाव की अभिव्यक्ति थी, वहीं दूसरी ओर इसमें यह सन्देश भी समाहित था कि विरोधियों द्वारा विशवमन करने के बाद भी हमारी सहनशीलता और समाधान कमजोरी का नहीं, बल्कि हमारी शक्ति का प्रतीक रहा है। उचित अर्थ में भगवान शिव की इस परम्परा का संरक्षण करने एवं सम्पूर्ण देश में इस सामाजिक व धार्मिक दर्शन के विस्तार के लिए ही कांवड़ यात्रायें की जाती रहीं हैं।
    सच्चाई यह है कि कोरोना काल के बाद देश में इस वर्ष कांवडि़यों की संख्या लगातार बढ़ रही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अकेले श्रावण मास में देश में करोड़ों कांवडि़यें गौमुख, नीलकंठ व हरिद्धार से पवित्र जल लाकर कांवड़ यात्रा पूर्ण करते हैं। इस बार इन कांवड़ियों की संख्या चार करोड़ के आस-पास पहंुचने का अनुमान है। कांवड़ यात्रा के धार्मिक बाजार से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल से पूर्व के सालों में अकेले हरिद्वार आने वाले कांवड़ियों की संख्या तीन करोड़ को पार कर गयी थी। इस बार इनकी संख्या चार करोड़ से भी अधिक हो जाने का अनुमान है। अवलोकन यह भी बताते हैं कि हरिद्वार के साथ में ब्रज घाट पर इस कांवड़ मेंले से प्रति वर्ष 500 करोड़ रुपयों से अधिक का कारोबार होता है। और भी खास बात यह है कि यहां कांवड़ की छोटी बड़ी दो हजार से अधिक सीजनल दुकानें हैं जिनसे ड़ेढ़ लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इस कांवड़ यात्रा में एक और खास बात यह भी देखने में आ रही है कि इसमें 10 वर्ष से 45 वर्ष तक के बालकों, के साथ में युवाओं व युवतियों का रुझान अधिक बढ़ा है। इस कांवड़ यात्रा में जातियों का समीकरण देखने से पता चलता है कि इसमें उच्च जातियों का प्रतिशत काफी कम है। सामाजिक-आर्थिक आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में मध्यम एवं निम्न वर्गों के बीच कांवड़ यात्रा का आकर्षण अधिक दिखाई पड़ रहा है। इनके अतिरिक्त इस कांवड़ यात्रा के प्रति उन युवाओं का आकर्षण अधिक दिखाई पड़ रहा है, जिनमें शिक्षा का कम प्रभाव, धार्मिक आस्था के प्रति सघन लगाव, सामुदायिक भावना का गहन आन्तरीकरण, वर्गीय चेतना एवं श्रमसाध्य जीवन जैसे गुणों की बाहुल्यता अधिक है। आज जिस तरह मीडिया ने धर्म व धार्मिक आस्था को उपभोक्तावाद से जोड़ा है, उससे भी कांवड़ यात्रा बाजार का हिस्सा बन गयी है। कांवड़ यात्रा के प्रति आकर्षित होने वाले इन युवाओं में िशवभक्त बनने की धार्मिक प्रवृत्ति तो है, परन्तु पिछले दिनों इनकी जीवन शैली में जिस प्रकार भीड़-उन्मुख आक्रामक शैली का प्रस्फुटन हुआ है, उससे इन कांवड यात्राओं का चरित्र थोड़ा बदलता प्रतीत हो रहा है। आज के इन मध्यम वर्गीय युवाओं के लिए धर्म एवं धार्मिक विश्वास,उनकी सांसारिक एवं भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति का साधन अधिक बन रहें है वहीं दूसरी ओर ये कांवड़ यात्रायें अब मौज मस्ती के साथ-साथ एडबंेचरका भी एक लक्ष्य बनकर उभर रहीं हैं।
    कहना न होगा कि अब साल-दर-साल डाक कांवडि़यों की संख्या और उनकी धार्मिक आस्था में लगातार वृद्धि हो रही है। इससे निश्िचत ही हिन्दुत्व से जुड़ी विचारधारा का प्रभाव और तीव्र हुआ है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड की सरकारों के द्वारा कांवड़ियों पर फूल बरसाने से कांवड़ियों का उत्साह दोगुना हुआ है। परन्तु यहां ज्वलन्त प्रश्न ये हैं कि इन भक्तों की धार्मिक आस्थाओं से शिव भक्ति का दर्शन कमजोर क्यों हो रहा है? जिस कांवड़ यात्रा का प्रमुख ध्येय शरीर को कष्ट देते हुए पवित्र धार्मिक लक्ष्य की प्राप्ति रहा है, उस दर्शन को नकारते हुए आज कांवडि़यों का स्वभाव असहनीय क्यों हो रहा है ? सरकारों के अनेक प्रयासों के बावजूद हमारी पवित्र गंगा मां प्रदूषण का दंश क्यों झेल रही है? कडुवा सच यह है कि बाजार की नयी भौतिक संस्कृति की चमक-धमक ने धार्मिक मूल्यों का क्षरण करते हुए भक्तजनों के यात्रा व्यवहार में भी तेजी से परिवर्तन किया है। यही कारण है कि धीरे-धीरे कांवड़ यात्राएं भीड़ का हिस्सा बनती जा रही हंै। आज धार्मिक बाजार का नया भगवा ग्लैमर कांवडियों को अपनी ओर खींच रहा है। लिहाजा धर्म से ओत-प्रोत बाजार का रुझान तो यही चाहेगा कि ऐसे धार्मिक पर्वों पर खूब भीड़ बढ़े और नियम व कायदे कानूनों की शिथिलता बनी रहें । तभी कांवड़ का बाजार फलने-फूलने में मदद मिलेगी। इस सच्चाई को प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं है कि कांवड़ यात्रा के भीड के मनोविज्ञान के सामने शिव भक्ति का दर्शन तुलनात्मक रुप से कमजोर पड़ता नजर आ रहा है। धार्मिक आस्थाओं को बाजार ने इन कांवड़ यात्राओं को भी बाजारू बनाने में कोई कसर उठा कर नहीं रखी। कांवड़ यात्रा में दिन रात की थकान दूर करने के लिए कभी कभी नशीले पदार्थों के प्रयोग की खबरंे भी यदा-कदा सुनने को मिलती ही रहतीं हंै। फिल्मी गीतों की तर्ज पर भौड़ें कैसेट, गीत व नृत्य इत्यादि के माध्यम से राज मार्गो पर मौज मस्ती करना किसी से छिपा नहीं है। स्थिति यह है कि दिल्ली से हरिद्वार जाने वाले मुख्य मार्गों पर चलना काफी तकलीफदेय हो गया है। इन राजमार्गों के किनारे वाले स्कूल व कालेज महीनों तक बंद कर दिये जाते हैं। कई बार तो प्रतियोगी परीक्षार्थी अपने केन्द्रों तथा मरीज अस्पताल तक नहीं पहुंच पाते। ऊपर से कांवरिये के किसी वाहन से छू जाने भर से प्रतिक्रिया स्वरुप सड़क पर ही उपद्रव शुरु हो जाता है। ऐसा अनुभव होता है कि शिवभक्त कांवडि़यों के धीरे-धीरे पर्यटकों में बदल जाने से उनकी कांवड़ यात्रा एक थ्रिल का साधन अधिक बन रही है। परिणामतः युवा कांवडि़यें अब धर्मोन्मुख भीड़ का हिस्सा बनकर उभरती नयी पहचान के संकट से जूझ रहे हंै। इसी बजह से कभी -कभी ये कांवड़िये मौका आने पर अपने को भीड़ तन्त्र का हिस्सा बनाने से नहीं चूकते।
    अन्ततः नगरीय विकास का एक पहलू यह भी रहा है कि सुविधाओं के साथ साथ चौड़-चौड़े राजमार्ग बन जाने से दुर्घटनाएं भी बढ़ी हैं। यातायात में वाहनों की असीमित बढ़ोत्तरी तथा लोंगो को अपना लक्ष्य पाने के तीव्र बोध ने दुर्घटनाओं को भी गति दी है। श्रावण मास कांवडि़यों के लिए श्रमसाध्य मास है। जहां इन राजमार्गों पर सभ्य व अनुशासित तरीके से चलने का दायित्व कांवडि़यों का है, वहीं इन कांवडि़यों की यात्रा को सुगम बनाने की जिम्मेदारी भी स्थानीय प्रशासन की है।

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