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अपनी अकेले की दम पर पन्द्रह माह तक क्रांति को जीवन्त रखा

  • रमेश शर्मा
    सुप्रसिद्ध महान क्रांतिकारी तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के अंतर्गत येवला ग्राम में हुआ था। (कुछ विद्वान उनकी जन्मतिथि 6 जनवरी भी मानते हैं) उनके पिता मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव द्वितीय के विश्वस्त सहयोगी थे।
    कानपुर, चरखारी, झांसी और कोंच की लड़ाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोड़कर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड़कर ग्वालियर चले गये। झांसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोषित किया। परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई 18 जून, 1858 को बलिदान हो गयीं।
    इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। तात्या ने एक साल तक अंग्रेजी सेना को झकझोरे रखा। उन्होंने ऐसे छापेमार युद्ध का संचालन किये जिससे उनकी गणना दुनियां के श्रेष्ठतम छापामार योद्धाओं में होती है। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ‘हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोड़ों को दौड़ाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकड़ने में कभी सफलता नहीं मिली।’ यह उनका अद्भुत युद्ध कौशल था। ग्वालियर से निकल कर तात्या राजगढ़ मध्यप्रदेश, राजस्थान, लौटकर पुनः मध्यप्रदेश व्यावरा, सिरोंज भोपाल नर्मदापुरम, बैतूल असीरगढ़ आदि स्थानों पर गये । लगभग हर स्थान पर उनकी अंग्रेज सेना से झड़प होती और वे सुरक्षित आगे निकल जाते। किन्तु परोन के जंगल में उनके साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और तात्या 7 अप्रैल 1859 को सोते में पकड लिए गये और शिवपुरी लाये गये। यहां 15 अप्रैल, 1859 को कोर्ट मार्शल किया गया। यह केवल दिखावा था। उन्हें मृत्युदंड घोषित किया गया। और तीन दिन बाद 18 अप्रैल 1859 को शाम चार बजे तात्या को बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फांसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढ़े और फांसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया।

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