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शिक्षा के मंदिर में भेदभाव की भावना

  • सोनम लववंशी
    शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण का आधार स्तंभ है। शिक्षण संस्थान राष्ट्र निर्माण की मजबूत कड़ी है, लेकिन जब शिक्षा के मंदिर से ही जातिगत भेदभाव की नींव पड़ने लगे, तो समझा जा सकता है कि हमारी शिक्षण पद्धति और हम किस दिशा में आगे बढ़ चले हैं। हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ से शुरु होती है। संविधान में धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की वकालत की जाती है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि लोकतंत्र का मूल्य संविधान में निहित है और संविधान छुआछूत और जातिगत भेदभाव का निषेध करता है। पर विडंबना देखिए आज़ादी के अमृत काल में भी देश छुआछूत के भंवरजाल में फंसा हुआ है। जातिवाद की जड़ें हमारे राष्ट्र को कमजोर कर रही है। देश के उच्च शिक्षा संस्थान भी जातीय भेदभाव से पीिड़त हैं।
    यही वजह है कि देश की न्यायपालिका को अब इस मुद्दे पर अपनी चिंता व्यक्त करनी पड़ रही है। बीते दिनों विश्वविद्यालयों में बढ़ती भेदभाव की घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, ‘विश्वविद्यालय परिसरों एवम शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों के साथ भेदभाव बंद करने की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है।’ गौरतलब है कि यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा जयसिंह द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान की। साथ ही कहा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण रवैये पर अंकुश लगाने बाबत प्रस्ताव पारित करे। दरअसल याचिकाकर्ता के अनुसार, 2004 से लेकर अब तक उपेक्षित वर्ग के 20 से अधिक शोधार्थी एवम छात्रों ने आत्महत्या की है और यही वजह है कि अब विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थान की गरिमा रसातल में जा रही है।
    संविधान के अनुच्छेद-14 और 15 में समता, समानता व व्यक्तित्व सम्बंधी स्वतंत्रता की बात कही गई है। इतना ही नहीं अनुच्छेद-21 सभी नागरिकों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन जब शिक्षण संस्थानों में ही समता, समानता और अधिकारों की अवहेलना होनी शुरू हो जाए। फिर सभ्य समाज और उसके नैतिक मूल्यों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। शिक्षा, मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए, लेकिन शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव मूल्यों, नैतिकता और संस्कारों को धूमिल कर रहे हैं।
    उच्च शिक्षा ही व्यक्ति में आत्मसम्मान और जागरूकता का निर्माण करती है। यही वजह है कि दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों के बच्चे बड़े सपने लेकर आईआईटी, आईआईएम, आईआईएमसी और एम्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई करने का सपना सँजोते है। उन्हें लगता है कि शिक्षित हो कर वे जातिगत भेदभाव की खाई को कम कर देंगे। ये संस्थाएं उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा दिलाएगी, लेकिन अनुभव इसके विपरीत दिखते है। कई बार तो छात्र अपनी पढ़ाई तक पूरी नहीं कर पाते है और उन्हें आत्महत्या जैसे क़दम तक उठाने को मजबूर कर दिया जाता है।
    2008 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में छह दलित छात्रों ने आत्महत्या की। स्कूल ऑफ फिजिक्स के एक दलित पीएचडी छात्र पी. सेंथिल ने 2008 में जहर खाकर जान दे दी। 2013 में मदारी वेंकटेश नामक छात्र ने आत्महत्या की, क्योंकि उन्हें विश्वविद्यालय में शामिल होने के ढाई साल बाद भी उनके शोध की निगरानी के लिए कोई पर्यवेक्षक उपलब्ध नहीं कराया गया था। 2016 में पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला और 2019 में डॉ. पायल तड़वी ने आत्महत्या की। साल 2007 में, नई दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एससी/एसटी छात्रों के उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिए एक कमेटी गठित की गई थी। केंद्र सरकार द्वारा गठित इस समिति ने इन छात्रों के खिलाफ बड़े पैमाने पर भेदभाव पाया।
    यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव थोराट की अध्यक्षता वाली समिति ने एम्स में एससी/एसटी छात्रों का सर्वेक्षण किया और पाया कि शिक्षक भी इस भेदभाव में भागीदार हैं। देश भले आज़ादी के 75 वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, लेकिन संकीर्ण और सामंतवादी सोच विश्वविद्यालय परिसरों में भी घर कर चुकी है। वर्ष 2012 में यूजीसी इक्विटी नियम लागू किया गया था। जिसका उद्देश्य जाति उत्पीड़न को रोकना था, लेकिन यह प्रयास भी भेदभाव रोकने में नाकाफ़ी साबित हुआ। ऐसे में अब सामूहिक चेतना में बदलाव से ही शैक्षणिक संस्थान भेदभाव से मुक्त हो पाएंगे। वरना मंगल, चांद कहीं भी मानव पहुँच जाए, लेकिन संविधान, नैतिकता और मानवीय मूल्य धरे के धरे ही रह जाएंगे।

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