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- देवेन्द्र कुमार
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम की सीताजी एवं अपने अनुज श्री लक्ष्मण के साथ अयोध्या से लंका तक की यात्रा आज भी प्रासांगिक बनी हुई है। श्रीराम की यह 14 वर्ष की वनवास यात्रा भारत ही नहीं बल्कि वैश्िवक संदर्भ में भी संदेश देती है कि जननायक कैसा होना चाहिये। जहाँ आज विश्व में सत्ता-संघर्ष के लिये मारकाट मची हुई है क्योंकि सत्ता विहीन होने से सारे सुख वैभव समाप्त हो जाते हैं, वहाँ श्रीराम अपनी वनयात्रा में एक ऐसे राज्य का निर्माण करते हैं जहाँ राज्य के चारों अनिवार्य अंगों को एक अलग संदर्भ में देखा जा सकता है। सबसे पहिले किसी राज्य की स्थापना के लिये भूभाग की आवश्यकता होती है जिसकी एक सुनिश्िचत सीमा भी हो तो वे अपने राज्य की सीमा की घोषणा माँ कौशल्या के समक्ष प्रसन्नता के साथ करते हुये कहते हैं कि माँ ‘पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जह सब भाँति मोरि बड़काजू’ अर्थात हे माता! पिताजी ने मुझे वन का राज्य दिया है जहाँ सब प्रकार से मेरा बड़ा काम बनने वाला है।
तो कहाँ अयोध्या का राज्य और कहाँ 14 वर्ष की वनवास अवधि, उसमें भी आनंद सहित वन में वनवासियों के साथ रहने की दृढ इच्छाशक्ित। राज्य का दूसरा आवश्यक तत्व है जनसंख्या। किसी भी राज्य के लिये जनसंख्या का होना आवश्यक है। श्रीराम ने वनक्षेत्र में अपने राज्य के नागरिकों में कोल, किरात, भील,वानर आदि को अपना नागरिक माना जिन्होंने अपने राजा के लिये पर्णकुटी बनाकर उनके भोजन आदि की थी। वर्णन आया है-
कोल किरात वेश सब आए, रचे परन तृन सदन सुहाए।
कन्द मूल फल भरि भरि दोना, चले रंक जनु लूटन सोना।।
अर्थात कोल-किरात आदि सब अमृत के समान सुंदर दोने बनाकर उनमें भर-भर कर कन्द मूल, फल और अंकुर आदि को स्वाद और भेद, प्रकार, गुण और नाम बताकर देते हैं। उन्हें श्रीरामदर्शन के साथ उनके आतिथ्य करने में ऐसा अनुभव होता है जैसे किसी रंक को स्वर्ण की प्राप्ति हो गयी हो। इस तरह से जनता अपने राजा को अपने बीच पाकर अपने अधिकारों के साथ-साथ निष्ठा से निभाने में पीछे नहीं रही।
ऐसे श्रीराम के कानन राज्य के बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी तो लिखते है कि ‘‘गाँव-गाँव अस होइ अनंदू, देखि भानु कुल कैरव चन्दू’’ अर्थात श्रीराम जानकी और अनुज श्री लक्ष्मण को देखकर गाँव-गाँव में आनन्द हो रहा है क्योंकि सरकार शहर से वनक्षेत्र के गाँवों में आकर बस गई थी। राजमहल के सुखों को छोड़कर यदि राज्य का प्रधान अपनी रानी सहित घासफूस की साथरी पर सोये तो प्रजा से उसकी दूरी कैसे रह सकती थी। लिखा है ‘‘ते सियरामु साथरीं सोए, श्रमित वसन बिनु जाहिं न जोए।’ अर्थात जहाँ ओढ़ने, बिछाने के चादर, गद्दे और तकिये सब घास-फूस के बने हो् और उन पर प्रसन्नतापूर्वक वन की प्रजा के साथ कोई राजा-रानी विश्राम करें तो कैसे नागरिकों में राजा के प्रति अपनी निष्ठा का भाव नहीं होगा। रामराज्य को राजतंत्र कहने वाले को वर्तमान लोकतंत्र से भी आगे किसी सरकार के प्रकारों में क्या ऐसा वर्णन मिल सकता है?
दूसरे त्रेतायुग की इस प्रजा ने जान लिया था कि श्रीराम के मन, क्रम, वचन में भी पूर्ण एकत्व है जिससे उनके विश्वास को और दृढ़ कर दिया क्योंकि एक साधारण से केवट से नाव मांगते समय श्रीराम ने जो रथ सहित अपने मंत्री सुमंत्र को‘बरबस राम सुमंत्र पठाये सुरसरि तीर आपु तब आये’।’ अयोध्या से विदा होकर के ही गंगा किनारे केवट के पास आकर नाव मांगी थी ताकि केवट अभिव्यक्ति के अधिकार का सही प्रयोग कर अपनी बात निर्भयता से कह सके। दूसरे सदा साथ रहने वाले श्रीलक्ष्मण जो सदा एक जागरूक अंगरक्षक के रूप में रहते हैं तथा जिन्हें ‘नयन तरेरे राम’ अर्थात आँखें दिखाकर श्रीराम सदा शांत रहने को कहते हैं, भी केवट से बातचीत करते समय शांत रहे।और भगवान श्रीराम की अर्धागिनी सीता भी ससुराल और मायके के राजवैभव को त्यागकर साधारण वेषभूषा में वनवासियों के साथ प्रसन्नता से रहती हैं। यह सब देख सुनकर वनवासियों ने समझ लिया था कि इनसे वार्तालाप करने में कोई अधिकारी, कोई अंगरक्षक, दरबारी बीच में नहीं आयेगा।
श्रीराम भी वनवासियों की बातों को किसी राजा की तरह नहीं, पिता की तरह सुनते हैं। वर्णन आया है ‘वेद वचन मुनि मन अगम ते प्रभु करूणा ऐन वचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन अर्थात जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्रीराम भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है। राज्य का तीसरा तत्व है सरकार। यहाँ भले ही सरकार के स्वरूप में वर्तमान की तरह राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, अधिकारी न हों पर एक ऐसी सरकार की विशेषताओं का वर्णन आया है जहाँ मंत्रियों, उनके सहायकों में ये आध्यात्मिक विषेषताएँ होनी ही चाहिये। वर्णन आया है कि जब श्रीभरत ने अयोध्या के राज्य से भगवान श्रीराम के कानन राज्य को तुलनात्मक दृष्टि से देखा तो उन्हेंं लगा कि राज्य सरकार की स्थापना में सरकारों के प्रकार कुछ भी हो सकते हैं लेकिन लोकतंत्र की स्थापना को लेकर रामराज्य में तो यही विशेषताएं होनी चाहिए।वर्णन आया है-
‘भरत दीख वन सैल समाजू, मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू,।
इति भीति जनु प्रजा दुखारी त्रिविध ताप पीड़ित ग्रहमारी।।
रामवास बन संपत्ति भ्राजा सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा।
सचिव विरागु विबेकु नरेसु विपिन सुहावन पावन देसु ।।
भट जम नियम सैल रजधानी सांति सुमति सुचि सुन्दर रानी।
सकल अंग संपन्न सुराऊ, रामचरन आश्रित चित चाऊ।।
अर्थात श्रीभरत ने जब श्रीरामचन्द्रजी के निवास से सुशोभित वन की विशेषताओं को देखा तो अयोध्यावासियों के साथ श्री भरत इतने आनंदित हुये जैसे कि तीनों तापों से मुक्त होकर प्रजा किसी उत्तम देश में आ गयी हो। यहां की सुव्यवस्था एवं सुशासन को देखते हुये गोस्वामीजी ने सुहावने वन प्रदेश के राजा की, विवेक से, मंत्रियों की बिराग से उपमा दी है। राज्य की सुरक्षा के लिये यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्ममचर्य और अपरिग्रह तथा नियम ,शौच, संतोष, तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान जैसे योद्धा है।
चौथा तत्व है सम्प्रभुता- अर्थात सर्वोच्च शक्ति, पर कानन राज्य में श्रीराम ने यहाँ सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग जनता को निर्भयता प्रदान करने के लिए व अनीति, अराजकता, अन्याय समाप्ति के लिये ही किया। जब उन्होंने देखा कि बालि जैसा बलशाली भी कुमार्ग गामी है तो वे उसका वध करते हैं और कहते है ‘अनुज वधू भगिनी सुतनारी सुनु सठ कन्या सम ए चारी। इन्हहि कुदष्टि बिलोकइ जोई, ताहि बधे कछु पाप न होई’।
अर्थात छोटे भाई की स्त्री, बहिन पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान है। इन पर जो कुदृष्टि रखता है उसे मारने में कोई पाप नहीं लगता। भगवान श्रीराम यहाँ ऐसे दुराचारियों के लिए मृत्यु दंड की घोषणा कर न्याय की स्थापना करते हैं। दूसरे इसमें वे किसी का परामर्श मांगकर समय जाया नहीं करते। वही जब वे ऋ षियों से राक्षसों द्वारा किये गये संघार स्वरूप अस्थियों के ढेर को देखते हैं तो अपने दोनों हाथ जोड़ उठाकर तत्काल प्रतिज्ञा करते हुये कहते हैं ‘‘निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह, सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह’’ अर्थात श्रीराम ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों, संतजनों को निर्भयता प्रदान की। यहाँ राज्य के सबसे महत्वपूर्ण तत्व सम्प्रभुता के संदर्भ में वे किसी एक राज्य की बात नहीं करते हैं बल्कि अन्याय कहीं भी हो, उसकी समाप्ति के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होना वैश्िवक संदर्भ में सबके हित में है। इस तरह से श्रीराम का वन पथगमन न केवल धार्मिक, समाजिक, आर्थिक दृष्टि से बल्कि राजनीतिक रूप से भी हमारा मार्गदर्शन करता है जिसका अनुसरण जनता तथा राजनीतिज्ञों को करना ही चाहिए।