शिवकुमार शर्मा
उच्च नैतिक मानदंडों और आदर्शों को जीवन में उतारकर अपूर्व शौर्य, वीरता, तेज और साहस के साथ मातृभूमि, स्वाभिमान और आत्मगौरव की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने के कारण शक्ति का अवतार वीरांगना रानी दुर्गावती का नाम इतिहास में अमर हो गया। महोबा (गढ़ कटंगा) के राजा कीर्ति सिंह चंदेल के यहां 5 अक्टूबर 1524 को बांदा जिले के कालिंजर किले में लाडली पुत्री का जन्म हुआ। इकलौती संतान का जन्म दुर्गा अष्टमी के दिन होने से दुर्गावती कहलाईं। लाड़-प्यार में पालन-पोषण के साथ बाल्यावस्था में ही घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी, बंदूक की निशानेबाजी में निपुणता प्राप्त कर ली। अपूर्व रूप यौवन की स्वामिनी बड़े ही सधे हाथों से कुशलता के साथ शस्त्र चालन सीख गयी थी। गढ़ामंडला -गोंडवाना के राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह दुर्गावती के इस रणकौशल से प्रभावित हुए। दोनों राज परिवारों की जातीय धाराएं भिन्न होने के बावजूद दलपत शाह ने दुर्गावती को 1542 ई.अपनी सहधर्मिणी बनाया। 1545 ईस्वी में रानी दुर्गावती ने पुत्र वीरनारायण को जन्म दिया । 1550 ई. में राजा दलपत शाह के असमय निधन से रानी को वैधव्य का वज्रपात झेलना पड़ा। उस समय समाज में स्त्रियों के लिए प्रतिकूल परंपराओं का प्रचलन था, जब राजा दलपत शाह के साथ रानी को भी जलाने (सती होने) का प्रबंध होने लगा तो उन्होंने इस कायरता पूर्ण परंपरा का निर्वाह करने से इंकार करते हुए कहा।
मालवा विजय के बाद अकबर की निगाह गोंडवाना राज्य को हड़पने कथा राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालने पर लगी थी। उसने रानी के पास संदेश भिजवाया कि वह प्रिय सफेद हाथी सरमन और विश्वासपात्र सेनापति आधार सिंह को अकबर को भेंट करें। रानी ने क्षत्रियोचित वीरता के साथ प्रस्ताव ठुकरा दिया। अकबर विवाद चाहता ही था। उसने अपने सेनापति आसफखाँ को दल बल के साथ चढ़ाई के लिए भेज दिया। युद्ध हुआ, वह प्राण बचाकर भागा ।इस युद्ध में उसे दिन में तारे दिखा दिए। रानी की अप्रत्याशित वीरता से निराश और हतप्रभ हुआ।
पुनः 10 हजार सैनिकों के साथ अकबर ने युद्ध के लिए आसफखाँ को भेजा। रानी के पास मात्र 300 सैनिक थे उन्होंने आसफखाँ की सेना के तीन हजार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिए। रानी ने सेना का संचालन पुरुष वेश में स्वयं किया ।योद्धाओं ने यह युद्घ देश और नारी के सम्मान के लिए लड़ा ।रानी को सलाह दी गई कि वह सुरक्षित स्थान पर चली जाए ,परंतु उन्होंने कहा कि-मैं युद्ध में आज विजय श्री अथवा मृत्यु में से किसी एक का वरण करने के लिए आई हूं। इसलिए आज मेरे पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं है।
24 जून 1564 को निर्णायक युद्ध हुआ । रानी के सैनिक मारे जा चुके और हारना तय हो गया तो जबलपुर- मंडला रोड पर स्थित बरेला के पास नरिया नाला के किनारे वीरहृदया ने अंतिम इच्छा व्यक्त की-
क्षत्राणी की पावन काया,म्लेच्छों के हाथ न पड़ जाए ,
उससे पहले ही तन से ये, प्राण पखेरू उड़ जाए ।
आधार सिंह से आग्रह कर, खुद सीने में भौंक कटार लिया, वीरांगना विभूषित होकर, जग से महाप्रयाण किया। वीरता की कीर्ति पताका फहराने वाली भारत मां की बेटी ने अद्भुत पराक्रम के साथ बलिदान कर दिया। उन्हें शत-शत नमन।
