- जयराम शुक्ल
आमतौर पर जब हम पराधीनता या स्वतंत्रता समर की बात करते हैं तो हमारे सामने सिर्फ अँग्रेज़ी हुक्मरानों की छवि सामने आती है। जबकि हमे गुलामी और उसके विरुद्ध संघर्ष की बात 12वीं सदी से शुरू करनी चाहिए। और उन महापुरुषों के योगदान का स्मरण करना चाहिए जिन्होंने भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता की चाह को बनाए रखा। बहुत से वीर पराक्रमी योद्धा हुए जिन्होंने तब भी गुलामी के खिलाफ आवाज उठाई और आत्मोसर्ग किया। महाराणा प्रताप और वीर शिवा जी इसी श्रृंखला के अमर नायक हैं जिन्होंने मातृभूमि का ऋण चुकाया।
मेरी दृष्टि में उन महापुरुषों का योगदान सर्वोपरि जिन्होंने अपने साहित्य, अपने सांस्कृतिक उपक्रमों से समाज में स्वतंत्रता की चेतना की लौ को जलाए रखा। इनमें कबीर और तुलसी प्रमुख हैं। क्रूर शासक इब्राहिम लोदी के सल्तनत काल में कबीर ने आत्मा की स्वतंत्रता को आवाज दी और वंचित वर्ग के लोगों को मुख्यधारा में खड़ा किया। कबीर ने सल्तनत की गुलामी के समानांतर अंधविश्वास और रूढ़ियों के गुलाम जनमानस को स्वतंत्र होने का मंत्र दिया। गोस्वामी तुलसीदास तो मुक्ति संघर्ष के महान उद्घोषक की भूमिका में अवतरित हुए। उनकी दृष्टि चौतरफा थी। उन्होंने अकबर जैसे जघन्य और दुर्दांत शासक की सत्ता को चुनौती दी और आगे के स्वतंत्रता संघर्ष का पथ प्रशस्त किया।
तुलसीदास युगदृष्टा थे। रामकथा को रामचरित मानस में पिरोकर एक ऐसा अमोघ अस्त्र दे दिया जो अकबर से लेकर औरंगजेब और अँग्रेजों तक की सत्ता को उखाड़ फेंकने के काम आया। यही नहीं यदि आज हम अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण व प्राणप्रतिष्ठा के गौरवक्षण तक पहुंचे हैं तो उसके पीछे भी तुलसी और उनका अमोघ ग्रंथ रामचरित मानस ही है जिसने हमारे आत्मतत्व को एक हजार वर्ष की गुलामी के बाद भी बचाए रखा। गोस्वामी जी उस अकबर के समयकाल में अवतरित हुए जिस अकबर ने समाज की सभी मानमर्यादाओं को अपने तलवार की नोकपर धूलधूसरित कर दिया था। जिस तरह रावण के दरबार में पवन देव हवा करते, दिग्पाल दरवाजों पर पहरे देते, और भी जितने देवी-देवता, ग्रह-नक्षत्र थे सभी रावण के यहाँ चाकरी करते। उसी तरह का हाल अकबर के दरबार में भारतवर्ष के राजा महाराजाओं का था। रावण के अंतःपुर की भाँति अकबर का भी हरम बल-छल से हरी गईं श्रेष्ठ व कुलीन युवतियों से भरा था। वह जो चाहता उसे हरहाल पर पाकर रहता। दडंकारण्य में जिसतरह त्रिसरा-खर-दूसण का आतंक था वैसे ही अकबर के सूबेदारों का उत्तर से लेकर दक्षिण तक। आसफ खाँ एक तरह से खरदूषण ही था जिसे गोड़वाना की रूपवती वीरांगना दुर्गावती को अकबर के हरम के लिए पकड़ने के अभियान में भेजा गया था। अकबर ने तत्कालीन मेधा को भी अपने दरबार में गुलाम बनाकर रखा था। तत्कालीन बौद्धिक समाज का बड़ा तबका इतना भयभीत था कि वह अकबर का चारण-भाँट बन बैठा। पंडितों ने अल्लाहोपनिषद और अकबरपुराण जैसे ग्रंथ लिखे। कुछ ने तो अकबर को हमारे देवी-देवताओं के परम भक्त के रूप में उसे प्रचारित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
उसे भी रावण की तरह अभिमान था कि मेरे आगे कौन ईश्वर, रावण ही ईश्वर है ,वही जग का नियंता है। वह भी इसी क्रम में जलालुद्दीन से अकबर बन बैठा। अकबर अल्लाह का विशेषण है..अल्लाह-हू-अकबर। यानी कि अल्लाह ही परमशक्ति है महान है दूसरा कोई नहीं। अत्याचार और तलवार की नोकपर जलालुद्दीन- हू-अकबर बन गया। ईश्वर का अवतार नहीं अपितु पूरा ईश्वर। अपना एक नया धर्म भी प्रतिपादित कर लिया, हिन्दू-मुसलमानों से अलग। ऐसे भीषण और वीभत्स संक्रमण काल में तुलसीदास सामने आते हैं और अकबर की महत्ता को चुनौती देने के लिए लोकभाषा के अमरग्रंथ रामचरित मानस की रचना होती है। संवाद दर संवाद और कथोपकथन शैली में रामचरित जनजन के मानस तक पहुँचता है। अकबर के कालखंड के इतिहास को सामने रखिए और फिर रामचरित मानस का पाठ करिए तो सीधे-सीधे बिना कुछ कहे गोस्वामी तुलसीदास संकेतों में असली मर्म समझा देते हैं। अकबर के उस आततायी काल में यदि रामचरित मानस न लिखा गया होता तो कोई बड़ी बात नहीं कि आज हम अल्लाहोपनिषद और अकबरपुराण, महान-यशस्वी, मुक्तिदाता अकबर ही पढ़ रहे होते।
तुलसी ने रामकथा को लोकभाषा में रचा भर ही नहीं उसे लोकव्यापी भी बनाया। गाँव-गाँव रामलीलाएं शुरू हुँई और रामचरित मानस की चौपाइयां कोटि-कोटि कंठों में बस गईं। हताश युवाओं के सामने महाबीर हुनमान, बजरंगी का चरित्र रखकर उनमें आत्मविश्वास जगाया। जिसका कोई नहीं उसके बजरंगबली। हनुमान चालीसा के मंत्र ने निर्भय बनाया। गाँव गाँव हनुमान मंदिर और उससे जुड़ी व्यायामशालों ने दिशाहीन तरुणाई में पौरुष का संचार किया। समर्थ रामदास स्वामी ने जब छत्रपति शिवाजी महाराज को सुराज स्थापित करने का मंत्र दिया तो उसे सफल करने तंत्र भी दिया। यह तंत्र हनुमान जी के मंदिर, उससे जुड़ी व्यायामशालाऐं और वहाँ से निकलने वाले वीर तरुणों के समूह के रूप में निकला। इन्हीं वीर तरुणों के पराक्रम की वजह से शिवाजी का साम्राज्य स्थापित हुआ। इन हनुमान व्यायामशालों का उपयोग प्रकारांतर में बाल गंगाधर तिलक ने किया।
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