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- प्रो. (डॉ.) राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
बलिदानों और संघर्षों के पश्चात सन 1947 में अंग्रेजों की गुलामी से भारत आजाद हुआ। भारत के हर कोने में लोग स्वतंत्रता के उत्साह में सराबोर थे। नीति-निर्धारकों ने 2 वर्ष, 11 माह और 18 दिन तक कई दौर के बैठक के उपरान्त भारत गणराज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करने हेतु संविधान लिखा। सबकी अपेक्षा थी कि भारत का शासक जो भी होगा वह भ्रष्टाचार और परिवारवाद से मुक्त होकर लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखकर सर्वसमाज के हित में न्याय करते हुए राष्ट्र को प्रगति के पथ पर ले जाएगा। लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ राजनेताओं की नीति और नीयत में खोट तथा भ्रष्टाचार की वजह से ऐसा नहीं हो पाया।
सन 2014 से पूर्व तक शायद ही कोई दिन रहा होगा जब समाचार-पत्रों में राजनीतिक भ्रष्टाचार से जुड़ी खबर नहीं छपी होगी। लेकिन सन 2014 के बाद से केंद्र की मोदी सरकार के 9 वर्षों के कार्यकाल में किसी भी मंत्री या विभाग के अधिकारी पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है। विपक्षी नेता समय-समय पर आरोप मढ़ने का प्रयास जरूर किए, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। जबकि न्यायालय में कांग्रेस के कई नेताओं पर आरोप सिद्ध हुई है और सजा भी मिली है। बावजूद इसके कांग्रेस के नेता अपनी गलती को स्वीकार करने और सुधारने की बजाए उसे बढ़ावा देते रहे हैं। इस प्रकार जो सिलसिला सन 1947 में शुरू हुआ था, उसी विरासत को आज के भी कांग्रेसी आगे बढ़ा रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता के उपरान्त 75 वर्षों के कालखंड में पाँच दशकों तक कांग्रेस पार्टी या कह लीजिए नेहरू परिवार के चंद लोगों के हाथ में ही सत्ता की बागडोर रही है। इस दौरान सरकार के संरक्षण में जो कुछ भी हुआ, उससे भारत विकास के मानकों पर पिछड़ता ही गया। इसका असर आज भी देखने को मिलता है। कांग्रेस ने कई समस्याओं को पेचीदा बनाकर ऐसा उलझाया कि आज तक वह भारत के लिए सिरदर्द बना हुआ है। इसकी मुख्य वजह राजनीति में भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टिकरण के मिश्रण से उत्पन्न पदलोलुप तानाशाही शासन प्रणाली रही है।
कांग्रेस सत्ता में रही हो या विपक्ष में उसके व्यवहार, कार्यक्रम तथा विचार हमेशा देश को को खंडित करने वाला रहा है। नेहरु से लेकर राहुल गांधी के दौर तक में कोई बदलाव नजर नहीं आता है। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में ऐसी परम्परा बनाई कि भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार हो गया था। भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद हुए बड़े घोटाले के रूप में कलकत्ता के उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा को जाना जाता है। प्रधानमंत्री नेहरू ने इस मामले में अपने सरकार के वित्तमंत्री कृष्णमाचारी को बचाने का पूरा प्रयास किया, लेकिन अंततः उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। 1973 में हुई मारुतम घोटाले में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम था। ‘बोफोर्स घोटाला’ 1987 में राजीव गाँधी के कार्यकाल में हुआ था। और अब नेशनल हेराल्ड केस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर जाँच चल रही है। वहीं अगस्ता हेलीकॉप्टर घोटाला में सोनिया गाँधी के राजनीतिक सचिव और कांग्रेस नेता पर आरोप था।
मामला जम्मू कश्मीर का हो या भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्य बनने की दोनों अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने भारत के हित का ध्यान नहीं रखा। सन 1962 में चीन के साथ युद्ध भी उनकी कूटनीतिक अपरिपक्वता का ही परिणाम था। बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी न्यायपालिका और कार्यपालिका को अपने राजनीतिक सनक से चलना चाहती थी। जब-जब उनका विरोध हुआ तो उन्होंने संविधान और कानून को दरकिनार कर फैसला लिया। सन् 1974 में इंदिरा गांधी सरकार में हुए व्यापक भ्रष्टाचार का देशव्यापी विरोध हुआ था। जबकि सन 1975 में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी को चुनाव गड़बड़ी के आरोप में दोषी पाते हुए उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी थी। शासन की कुव्यवस्था से श्रीमती गांधी चौतरफा घिर चुकी थी। इसलिए बौखलाहट में उन्होंने जनता की आवाज को खामोश करने हेतु 25 जून 1975 को आपातकाल लगाकर भारत को गर्त में धकेल दिया। इतना ही नहीं बिना किसी पद के इंदिरा गांधी ने अपने पुत्र संजय गाँधी को सरकार के सभी कामकाज में संलिप्त रखा, इसलिए उन्हें भारतीय राजनीति में परिवारवाद की कड़ी को और मजबूती प्रदान करने वालों में गिना जाता है। प्रधानमंत्री रहते हुए राजीव गांधी ने वोट के खातिर अल्पसंख्यक समुदाय को खुश करने लिए शाहबानो केस में माननीय न्यायालय के फैसला को पलट दिया था। सन 2004 से 2014 तक के कांग्रेस नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार में 2जी, कॉमनववेल्थ गेम्स, अगस्ता वेस्ट लैंड और कोल ब्लॉक आवंटन समेत दर्जनों घोटाले हुए। विश्व के सबसे बड़े खेल आयोजनों में से एक राष्ट्रमंडल खेल का आयोजन 2010 में हुआ था। इसकी चर्चा पदक जीतने की बजाए कांग्रेस नेताओं द्वारा किये गए भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात है।
राजद, बसपा, सपा, आप, जदयू जैसे क्षेत्रीय दलों की भी स्थिति कांग्रेस जैसी ही है। महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया के विचार इन पार्टी के नेताओं के भाषणों तक ही सिमटे हुए हैं। सभी तथाकथित नवसमाजवादी नेता इन महापुरुषों को अपना आदर्श बताते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और सत्ता लोलुप्ता को केंद्र में ही रखकर ये नेता भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं। नवसमाजवादी नेताओं ने कभी भी भ्रष्टाचार, आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ बोलने का भी साहस नहीं दिखाया है। जाति आधारित भेदभाव एवं भ्रष्टाचार को खत्म करने की जो लौ लोहिया और जयप्रकाश ने जलाई थी आज उसे बुझाने का काम वर्तमान के स्वघोषित नवसमाजवादी नेताओं ने किया है। कुर्सी लोलुप नेताओं ने समाजवादी विचारधारा को एक-एक कर अपने घिनौनी राजनीतिक कृत्यों से दूषित ही किया है।
सन 2014 से पूर्व ये सभी दल एक दूसरे का विरोध करते थे। लेकिन सन 2014 के बाद से भारतीय राजनीति में गुणवत्तापूर्ण सुधार के साथ विकास को केंद्र में रखकर जो विमर्श शुरू हुआ उसका मुकाबला ये पार्टियाँ नहीं कर पाई। इसके कारण सभी विपक्षी दल भारतीय राजनीति में बने रहने के लिए न चाहते हुए भी एक दूसरे का सहारा बनने के प्रयास में लगे हैं। तभी यह देखने को मिल रहा है कि समाजवाद के नाम पर शुरू हुई दल कांग्रेस और वामपंथ के साथ गठजोड़ कर रही है। गैर भाजपा दलों को जोड़ने के प्रयास में लगे दल और नेता या तो किसी न किसी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या फिर परिवारवादी हैं।