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- डॉ लोकेन्द्रसिंह कोट
नया, नवीन, नव, नूतन कितने-कितने नाम ले लो…..नया तो नया ही होता है। नया भले ही उसी कद-काठी का हो, हमशक्ल हो परंतु एक नया उत्साह लेकर ही आता है। हमें पता है यह नया कभी पुराना हो जाएगा और जो पुराना हो गया है वह कभी नया था। कौन पड़े इस चक्रव्यूह में हम तो अभी इस क्षण जीना चाहते हैं, जो अभी नवीन है वही हमारी हकीक़त है। वर्तमान हमेशा नवीन होता है और सबसे बडी बात हम वर्तमान के अलावा और कहीं जी भी नहीं सकते। अब यह अलग बात है कि हम वर्तमान में रहकर भूत और भविष्य का रोना रोते रहें और इस सुनहरे वर्तमान को भी खो दें। हम वर्तमान में रहकर सृजनशील रह सकते हैं और हमारा सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं। नवीनता हमें उत्साह से भरकर सृजन में लगाती है। प्रत्येक चिंतनशील और दार्शनिक मनुष्य के जहन में अनेक प्रश्नों के साथ यह प्रश्न भी हमेशा कौंधता होगा कि वास्तव में इस सृष्टि का सृजन क्यों हुआ? इसका उत्तर बुद्धिगम्य नहीं है। पौराणिक मान्यताओं और किंवदंतियों के उलझन भरे जवाबों से परे इसका सहज उत्तर यह हो सकता है कि गति इस कायनात की अनिवार्य प्रक्रिया है और सृजन उसका आवश्यक अंग है। व्यापक अर्थों में सृजन का अर्थ निर्माण से ही है। यह सृजन ही है जो इस सृष्टि की गति को मुखर करता है, उसे सार्थकता प्रदान करता है। यदि केवल गति हो और सृजनात्मकता का अभाव हो तो सापेक्षता के आधार पर यह गति शून्य प्रतीत होगी। यही शून्य मृत्यु या निर्जीवता को प्रदर्षित करता है।
नव सृजन ही जीवन है : जीवन है तो वहाँ सृजनशीलता भी होगी और जहॉं सृजनशीलता है वहॉं जीवन भी होगा। अर्थ यही है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जीवन को जीना और जीवन को ढ़ोना एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्रत्येक जीव अपना अस्तित्व इन्हीं में खोज लेता है। सृजनशीलता निरंतर प्रवाह जीवन को जीने के लिए प्रेरित करता है वहीं, ‘जैसा है वैसा चलने देने’ वाला जीवन सृजनशीलता के अभाव को प्रकट करता है। कई बार परिस्थितियॉं ऐसी रहती हैं जो सृजनशीलता से विलग ही कर देती हैं वहॉं जीवन को ढ़ोना ही महत्वपूर्ण कार्य समझा जाता है। एक और स्थिति होती है जीवन की, जहां सृजन तो होता है परंतु विसंगतियों का सृजन। देव व असुरों के मध्य विभेद का एक यह बिन्दु भी प्रमुख रहा है। एक सृजन सद्कार्यों के लिए व दूसरे का विध्वंस के लिए। यूॅं तो जड़ या निर्जीव वस्तुऍं ही अच्छी रहती है जो सृजन तो नहीं करती हैं परंतु वे सृजन का माध्यम जरूर बन जाती हैं।
नव सृजन, सार्थक सृजन : यह आवष्यक नहीं है कि सृजन करने का लक्ष्य बहुत बड़ा हो या कोई महान कृति, कार्य हो। प्रत्येक सृजन जो जीवन को उल्लास दे, जीने का ढंग दे, सहारा दे वह भी श्रेष्ठ सृजन है। यदि सृजन लोकोउपयोगी है तो और भी बेहतर। जो सृजन समाज व राष्ट्र को उन्नति के मार्ग पर पहुँचाए वह सर्वश्रेष्ठ सृजन है। हिमालय का निर्माण कोई एक दिन में नहीं हुआ। सृजन के एक-एक अणु परमाणु के युग-युगीन प्रयत्नों के पश्चात उसका निर्माण हुआ। सार यही है कि सृजन कभी छोटा या बड़ा नहीं होता। वह तो सिर्फ सद्कार्यों की कसौटी पर कसा होना चाहिए।
श्रेष्ठ सृजन तो श्रेष्ठ विकास : वर्तमान में हम अत्याधुनिक जीवन जी रहे हैं और उन्नति (?) के मार्ग में बह रहे हैं। दिन-प्रतिदिन बल्कि घंटे-प्रति घंटे नए-नए बदलाव की आहट सुनाई देती है। अब यह सोचना काफी परिश्रम का कार्य होगा कि हमने इस कथित उन्नति में कितना श्रेष्ठ सृजन किया और कितना विसंगतिपूर्ण सृजन किया। नवीनता के जोश को संभालने की आवश्यकता भर है। जैसे ही हम नवीनता की आकांक्षा करते हैं हम नदी बन जाते हैं। हमारे दो किनारे कभी मिलते नहीं लेकिन वे भी एक होकर साथ चलते हैं। प्रत्येक मनुष्य से यह आशा की जा सकती है कि वह कुछ न कुछ सृजन अवश्य करे, जो उसके भविष्य का आधार साबित हो। इतना भी नहीें कर सकते तो वह इतना तो कर सकते हैं कि संपर्क में आने वाली वस्तु एवं जगह को छोड़ने से पहले उसे उसके पूर्व रुप से अधिक अच्छा बना दें। यही आज का श्रेष्ठ सृजन होगा।