208
- ललित गर्ग
वर्ष 2024 के चुनाव से पूर्व भारतीय राजनीति के अनेक गुणा-भाग और जोड़-तोड़ भरे दृश्य उभरेंगे। महाराष्ट्र में ताजा राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है। वहां जो हुआ है उससे विपक्ष में खलबली है, घबराहट एवं बेचैनी स्पष्ट देखी जा सकती है, जो पटकथा महाराष्ट्र में लिखी गयी है, वही बिहार में भी लिखी जा सकती है। राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले शरद पवार की पार्टी का यह हश्र आश्चर्यकारी ही नहीं, बल्कि एक बड़ा विरोधाभास एवं विपक्ष्ी एकता का संकट भी है। एक तरफ इस तरह के घटनाक्रम को राजनीतिक दलों में आंतरिक असंतोष व गुटबाजी से जोड़ा जा सकता है तो दूसरी तरफ सत्ता के उस स्वाद की आकांक्षा से भी, जिसे हर कोई पाना चाहता है। राजनीतिक दलों में बगावत का ऐसा दौर जब भी होता है इस बात को जोर-शोर से प्रचारित किया जाता है कि उनके दल में लोकतंत्र नहीं रहा इसलिए वे अपने विरोधियों से हाथ मिला रहे हैं। बड़ा प्रश्न है कि इस तरह राजनीतिक दलों से लोकतंत्र गायब होता रहा है, तो ऐसे अलोकतांत्रिक दल कैसे देश के लोकतंत्र को हांक सकेंगे?
भाजपा एक सक्षम एवं ताकतवर पार्टी है, नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह करिश्माई राजनेता है, अनेकानेक विशेषताओं वाले इन दोनों नेताओं की एक बड़ी विशेषता यह है कि ये अपने साथ दगा करने, धोखा देने या विश्वासघात करने वालों को कभी माफ नहीं करते। मौका आने पर ये ऐसे लोगों को सबक जरूर सिखाते हैं, महाराष्ट्र में सियासी उठापटक ऐसा ही सबक है। चुनाव पूर्व गठबंधन को नकारते हुए 2019 में शिवसेना ने अपने सहयोगी दल भाजपा से संबंध तोड़ जिस तरह सरकार बनाई और उसके जबाव में बाद में भाजपा ने जो दांव खेला, किसी से छिपा नहीं नहीं है। विधानसभा चुनाव के दौरान तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष रहे अमित शाह को चुनाव परिणाम बाद उद्धव ठाकरे ने धोखा दे दिया था। इसी कारण एकनाथ शिंदे शिवसेना से बगावत कर सीएम बनने में कामयाब हुए। दरअसल महाराष्ट्र में राकांपा के साथ जो कुछ भी हुआ उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि शरद पवार चुनाव परिणाम के बाद भाजपा के साथ सरकार बनाने को राजी होकर भी तीन-चार दिनों में ही उन्होंने पलटी मार ली थी। इस तरह से शरद पवार ने भी अमित शाह को धोखा दिया था। एक चीज साफ नजर आती है कि भाजपा को धोखा देने वाले नेता अथवा पार्टी को अमित शाह राजनीतिक रूप से माफ नहीं करते। अमित शाह उस नेता या पार्टी को राजनीतिक सबक सिखाने के लिए बस सही समय का इंतजार करते हैं। ताजा घटनाक्रम के लिए विपक्षी दल भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, भाजपा इसे राकांपा का अंदरूनी मामला बता रही है तो एनसीपी के बागी नेता किसी दबाव से इनकार करते हुए विकास के लिए शिंदे सरकार का साथ देने की बात कह रहे हैं। राजनीतिक जोड़-तोड़ के माहिर खिलाड़ी रहे राकांपा प्रमुख शरद पवार के लिए यह निश्चित ही बड़ी राजनीतिक मात साबित हुई है। ऐसे वक्त में जब समूचे भारतीय राजनीति में पवार खुद विपक्षी एकता के प्रयासों में जुटे थे, उनकी ही पार्टी में यह विभाजन महाराष्ट्र की नई राजनीतिक इबारत लिखने वाला होगा, इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन अहम सवाल यही उठता है कि देश की राजनीति आखिर सत्ता की खातिर ऐसे रास्ते पर क्यों चलने लगी है? पृथक चुनाव चिह्न पर जीत कर आने वाले आसानी से विरोधियों से हाथ क्यों मिलाने लगे हैं? देखा जाए तो धनबल के सहारे सत्ता पाना और सत्ता के सहारे धनबल हासिल करना आज की राजनीति की विकृति एवं विसंगति बन गया है।
महाराष्ट्र में राकांपा के अंदर मची उठापटक के बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में जनता दल युनाइटेड और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा को पार्टी में टूट का खतरा सताने लगा है। ऐसा ही डर कुछ और छोटी पार्टियों को भी है। लेकिन सबसे ज्यादा घबराहट जनता दल युनाइटेड खेमे में देखी जा रही है। जनता दल युनाइटेड की यह घबराहट स्वाभाविक भी है क्योंकि उसने भाजपा को जो धोखा दिया था उसका जवाब अब तक भाजपा ने नहीं दिया है। इन विपक्षी दलों की यह घबराहट सत्ता-लोलुपता की प्रवृत्ति के साथ किये गये भ्रष्टाचार के कारण है। शायद यही वजह है कि विपक्षी पार्टियों की बेंगलुरु में प्रस्तावित बैठक टलने की चर्चा भी शुरू हो गयी, लेकिन कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया कि बैठक बेंगलुरु में ही 17 और 18 जुलाई को ही होगी। कांग्रेस नेताओं ने यह बताना भी जरूरी समझा कि महाराष्ट्र में हुई घटनाओं का विपक्षी दलों के एकता के प्रयासों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।
एक और बड़ा प्रश्न है कि भारतीय राजनीति की शुचिता एवं आदर्श की रक्षा कैसे हो पायेगी? क्योंकि उभर रही सबसे बड़ी विडम्बना एवं विसंगति यही है कि जनता जिसको सत्ता से बाहर रखना चाहती है वह ऐसे अनचाहे घटनाक्रम से सत्ता हथिया लेता है। दलबदल कानून की धज्जियां उड़ती हुईं देखकर भी अदालतों से लेकर चुनाव आयोग तक ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे। चुनाव बाद होने वाले गठबंधनों में सत्ता-लोलुपता की प्रवृत्ति तब ही रुकेगी जब संवैधानिक प्रावधानों में जरूरी बदलाव हों। गैर लोकतांत्रिक गठबंधनों को रोकने के लिये राजनीतिक दलों को सशक्त आचार-संहिता से बांधना भी जरूरी है।