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बाहरी बनाम उड़िया की जंग में खेत रहे नवीन पटनायक

  • उमेश चतुर्वेदी
    साल 2000..संसद का बजट सत्र चल रहा था। मार्च के पहले हफ्ते का कोई दिन था। लोकसभा में मंत्रियों वाली सीट की ओर एक सांसद धीरे-धीरे बढ़ रहा था। उस शख्स को देख लोकसभा की प्रेस गैलरी में हलचल मच गई। इस हलचल पर नीचे बैठे कुछ सांसदों की निगाह पड़ी। उनकी भी निगाह उसी ओर चली गई, जिधर रिपोर्टर देख रहे थे।इस बीच तत्कालीन सत्ताधारी गठबंधन के सांसदों की हथेलियां मेजों को थपथपाने लगीं..देखते ही देखते इस हथेली कोरस में समूचे सदन की हथेलियां जुड़ गईं..क्या सत्ता पक्ष, क्या विपक्ष, हर सांसद की थपेली जैसे एक लय में मेजों को थपथपाने लगीं थी। इस कोरस में शामिल नहीं था, तो संसद के कर्मचारी और अधिकारी, जिन्हें नियम-कानून इसकी अनुमति नहीं देते.सांसदों के इस अभूतपूर्व स्वागत से उस शख्सियत का अभिभूत होना स्वाभाविक था। इस औचक घटना के बाद वह व्यक्ति विनम्रता से और भर उठा।
    वह शख्सियत थे वाजपेयी सरकार के इस्पात मंत्री नवीन पटनायक। फरवरी 2000 में हुए उड़ीसा विधानसभा चुनाव में उनकी अगुआई में बीजू जनता दल ने 117 सदस्यीय विधानसभा में 68 सीटें जीत कर कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त कर दिया। अपने अस्तित्व के बाद बीजू जनता दल का वह पहला विधानसभा चुनाव था, जिसमें उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी थी, जिसने 38 सीटें जीती थीं। तब उड़ीसा में नया इतिहास रचा गया।
    राज्य के कद्दावर नेता रहे बीजू पटनायक के इकलौते इंजीनियर बेटे के तूफान में बंगाल की खाड़ी के किनारे की धरती से कांग्रेस उड़ गई। तब नया इतिहास रचा गया था। उस जीत के नायक का लोकसभा में सम्मान के लिए अगर उस कांग्रेस के सांसदों को भी मजबूर होना पड़ा था, उसकी वजह सिर्फ जीत नहीं, बल्कि उस शख्स की सादगी और विनम्रता रही। यह विनम्रता विगत 13 जून को भी भुवनेश्वर में नए मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भी दिखी, जब भूतपूर्व शासक के रूप में नवीन पटनायक शपथ मंच पर पहुंचे।
    इसे संयोग कहें या कुछ और कि जिस बीजेपी की बैसाखी के सहारे नवीन पटनायक ने उड़ीसा में नया इतिहास रचा, उसी बीजेपी ने ठीक 24 साल बाद नवीन पटनायक को भूतपूर्व बना दिया। अठारहवीं लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में मिले सदमे से जब बीजेपी जूझ रही थी, उसी वक्त उड़ीसा ने पार्टी को सांत्वना देने का काम किया। राज्य की 21 लोकसभा सीटों में बीस पर एकतरफा जीत हासिल करके राज्य को एक तरह से कांग्रेस मुक्त बना दिया। विपक्ष को मिली इकलौती सीट नवीन पटनायक को मिली। इतिहास हमेशा विजेता का ही है।
    इस लिहाज से देखें तो आज के उड़ीसा का इतिहास बीजेपी का है। लेकिन सवाल यह है कि नवीन पटनायक ने गलती कहां की? नवीन पटनायक ने विवाह नहीं किया है। उनके पिता बीजू पटनायक पहले कांग्रेस में थे, बाद के दौर में वे जनता परिवार की अहम हस्ती रहे। जनता दल के नेता के रूप में राज्य के मुख्यमंत्री बने। जब तक बीजू पटनायक जिंदा रहे, तब तक नवीन अमेरिका में इंजीनियर की नौकरी करते रहे। उनके निधन के बाद नवीन ने नई पार्टी बनाई और बीजू पटनायक की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया। 2000 के चुनावों में जिस बीजेपी के साथ वे सत्ता की सीढ़ी नापने में कामयाब रहे, उस बीजेपी से उन्होंने बाद के दिनों में अपना रिश्ता तोड़ लिया। यह लोकप्रियता बाद के हर चुनाव में दिखी, चाहे वह विधानसभा का हो या लोकसभा का या फिर पंचायती चुनाव। लेकिन अपने आखिरी कार्यकाल में उन्होंने गलतियां शुरू की। तमिलनाडु मूल के आईएएस अधिकारी वीके पांडियन उनके करीबी बनकर उभरे। विधानसभा चुनावों के ठीक पहले पांडियन ने इस्तीफा दे दिया और बीजू जनता दल में नवीन के अघोषित उत्तराधिकारी के रूप में उभरते चले गए। उन्होंने चुनाव अभियान में खूब मेहनत की। उड़ीसा में यहां तक माना जाने लगा था कि आने वाले दिनों में अगर बीजू जनता दल को जीत मिलती है तो नवीन सिर्फ नाम मात्र के मुख्यमंत्री होंगे और पांडियन असली मुख्यमंत्री होंगे।
    जिस उड़ीसा के लोग पूरे देश में रोजगार और पढ़ाई के लिए फैले हुए हैं, जहां के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की तूती अमेरिका के सिलिकॉन वैली तक में बोलती है, उसी उड़ीसा के लोगों का अपना स्वाभिमान जाग उठा। उन्हें नवीन पटनायक तो पसंद रहे, लेकिन उनके उत्तराधिकारी के रूप में वी के पांडियन पसंद नहीं रहे। उड़िया बनाम बाहरी का नारा लगा और भारतीय जनता पार्टी ने इसे जन नारा बना दिया। इसका असर यह हुआ कि बीजेपी ने उस नवीन पटनायक को किनारे लगा दिया, जिन्होंने कभी उसका हाथ झटककर उसे किनारे लगा दिया था। वी के पांडियन की पत्नी भी उड़ीसा में आईएएस अफसर हैं। सुजाता कार्तिकेयन और पांडियन की जोड़ी पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा प्रभावी हुई।
    उड़ीसा ऐसा राज्य है, जहां कम पढ़े लिखे, और कई बार अनपढ़ आदिवासी आबादी के साथ ही सवर्ण और पढ़े-लिखे प्रभावी लोगों का बेहतर अनुपात है। आदिवासी समुदाय में चर्चों का प्रभाव है। चर्च के प्रभाव को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद यहां गहरे तक सक्रिय है। संघ विचार परिवार के मजबूत सांगठनिक पहुंच और पकड़ के चलते देखते ही देखते बीजेपी ने भी गांव-गांव तक अपनी पैठ बना ली। नवीन पटनायक की चूंकि उम्र बढ़ रही है और वे शादीशुदा नहीं है। लिहाजा मौजूदा चलन के मुताबिक, उनकी विरासत को बढ़ाने के लिए उनके परिवार में कोई रहा नहीं। बीजू जनता दल का संगठन भारतीय जनता पार्टी की तरह नहीं रहा, लिहाजा वहां दूसरी पंक्ति का नेतृत्व उभर नहीं पाया।
    इस बीच बीजेपी ने आदिवासी समुदाय में अपनी पैठ बनाई। आदिवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च पद पर विराजमान कराया। चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता गया, बीजेपी ने स्थानीय बनाम बाहरी के मुद्दे को खूब उछाला। स्थानीय बनाम बाहरी के मुद्दे के साथ ही बीजू जनता दल के नेताओं के पलायन से उड़ीसा में संदेश गया कि अगर नवीन बाबू को जीत मिलती भी है तो उनके हाथ सत्ता नहीं रहेगी। उन पर शासन करने वाला उनका अपना नहीं, तमिलनाडु का नेता होगा। बीजेपी ने चुनाव अभियान में इसे बार-बार उछाला। नवीन पटनायक 77 साल के हो गए हैं। उनका स्वास्थ्य भी साथ नहीं देता।
    राज्य में यह भी माना जाने लगा कि उनके स्वास्थ्य की ठीक से देखभाल नहीं की गई। बीजेपी ने तो अपने चुनाव अभियान में वादा तक किया कि अगर वह सत्ता में आती है तो वह नवीन बाबू के स्वास्थ्य की उच्चस्तरीय जांच कराएगी। इससे पांडियन को लेकर रोष बढ़ा। जिसका नतीजा बीजू जनता दल की सत्ता से विदाई के रूप में सामने है। अगर नवीन पटनायक ने अपने ही दल से अपना कोई उत्तराधिकारी चुना होता, दूसरी पंक्ति का नेतृत्व उभारने की पुरानी तैयारी किए होते तो शायद चुनावी नतीजे उनके लिए इतने खराब नहीं होते।

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