153
- भूपेन्द्र भारतीय
भारत में िपछले छः वर्ष का सबसे बड़ा निवेश इस वर्ष की तिमाही में ही आ गया है। 2023 में अब तक 1. 47 हजार करोड़ रुपए का विदेशी निवेश शेयर बाजार में आ चुका है। जो पिछले 6 साल से ज्यादा है इनमें अभी 9 अरब डॉलर मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में आ चुके थे। इसकी बड़ी वजह है कि दुनिया सप्लाई के लिए चीन पर निर्भरता घटाना चाहती है। इसलिए बड़ी कंपनी वहां से निकल रही है। विदेशी निवेशक अगले 10 साल में चीन की अर्थव्यवस्था को लेकर ज्यादा आशान्वित नहीं है। वे भारत में भविष्य देख रहे हैं इनमें अमेरिकी और यूरोपीय निवेशक भी है। विदेशी निवेशकों ने मई में चीन के बाजारों से 17.1अरब डॉलर के शेयर बेचे। पिछले साल मई में ही है आंकड़ा 65. 9 करोड डॉलर था। इस स्थिति के पीछे कम्युनिस्ट पार्टी का व्यापारियों व अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के प्रति दबाव की नीति व चीन में आर्थिक क्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों का भारी आभाव प्रमुख कारण है। इसलिए ना सिर्फ कोविड महामारी के समय से ही बल्कि उसके बाद अब तक कम्युनिस्ट चीन से कंपनियाँ भाग रही है।
वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों का चीन से भागना शी जिनपिंग की सरकार को कितना अखर रहा है, वह इस नुकसान की भरपाई करने व अपनी सरकार के निरंकुश तंत्र को अच्छा दिखाने के लिए अपने मीडिया में खबरें चलाता है, जिसका उदाहरण चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स के संपादकीय से लिया जा सकता है। विगत दिनों ग्लोबल टाइम्स लिखता है- ‘अब इसमें तनिक भी शक की गुंजाइश नहीं कि चीन अब आर्थिक प्रगति की राह पर लौट आया है और वह फिर से वैश्विक पटल पर एक चमकते सितारे के रूप में स्थापित हो रहा है, ऐसे में यह देखना विचित्र लगता है कि कुछ विदेशी कंपनियां अपने आर्थिक फैसले, धारा के विपरीत ले रही हैं।’
यही नहीं लिविंगस्टोन ने यहां तक कहा कि हम एक दशक से यह ट्रेंड देख रहे हैं कि चीन से निकलकर कंपनियां मैक्सिको और वियतनाम आदि देशों में जा रही हैं। उन्होंने कहा कि वे इलेक्ट्रानिक चिप के बिजनेस को भी चीन से बाहर जाते देख रहे हैं। क्योंकि पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह से चीन ने कोविड के दौरान फोन से लेकर कार तक की इलेक्ट्रानिक चिप की आपूर्ति पर रोक लगा दी थी।
चीन से अब इलेक्ट्रानिक्स चिप की कंपनियां अपना बोरिया बिस्तर समेट रही हैं। सबसे ज्यादा प्रभावित कंपनी एप्पल ने इस काम को पहले कर दिया। इसके अलावा गूगल, अमेजन, सैमसंग व वोल्वो ने भी चीन से निकलना शुरू कर दिया है। सीएनबीसी के अनुसार चीन इस समय न केवल इलेक्ट्रोनिक्स, बल्कि परिधान, फुटवियर, फर्नीचर और ट्रेवेल गुड्स का बिजनेस भी खो रहा है। अमेरिकन एंटरप्राइजेज इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो डेरेक स्कीजर्स का कहना है कि कमजोर होती चीनी अर्थव्यवस्था, कोविड के कड़े नियम, बदले की कारवाई के तहत व्यापार संबंधी प्रतिबंध और कम्युनिस्ट चीन की कई मोर्चों पर युद्ध जैसी स्थिति के बाद चीन में अब बिजनेस करना काफी कठिन हो गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का चीन से मोह भंग एक दिन में नहीं हुआ है। कम्युनिस्ट चीन में इसकी एक दल व एक व्यक्ति की सरकार द्वारा मानवाधिकार का हनन, बौद्धिक संपदा की चोरी, व्यापार पर कई प्रकार के प्रतिबंध, बाजार में मनमाफिक घालमेल और कंपनियों के बोर्ड में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों का अनिवार्य प्रवेश ये सब बाहर की कंपनियां लगातार झेल रही हैं और अब ये उनको नागवार गुजर रहा है। फिर चीन का लेबर मार्केट सिकुड़ रहा है। चीन का कामगार बुजुर्ग हो रहा है। गरीबी पर काबू पाने के बाद से चीन में मजदूरों का मिलना भी मुश्किल हो रहा है। विश्व मीडिया के अनुसार स्वयं के द्वारा फैलाई गई कोविड महामारी के दौरान कठोर लाॅक डाउन ने चीनी मजदूरों के पलायन को काफी बढ़ा दिया है।
अमेरिकी इंवेस्टमेंट बैंकिंग कंपनी मॉर्गन स्टेनली की रिपोर्ट में कहा गया है कंपनियों के लिए भारत में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ने के अनुकूल हालात हैं। मॉर्गन स्टेनली के मुताबिक, दुनिया की बड़ी कंपनियां जोखिम कम करने और चीन—अमेरिका जैसे बड़े देशों की तकरार से बचने के लिए सप्लाई चेन में तब्दीली ला रही हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा भारत, मैक्सिको और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों को मिलेगा। जिसके चलते 8 साल में ही भारत में मैन्युफैक्चरिंग बेस तीन गुना तक हो सकता है। मॉर्गन स्टेनली के अधिकारियों ने कहा कि आने वाले समय में भारत ढेर सारे वस्तुओं का निर्माण ( मैन्युफैक्चरिंग) करेगा।