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- डॉ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी
महर्षि अरविन्द ने एक निबन्ध लिखा था -क्या भारत सभ्य है? पुनर्जागरण के जमाने में ही महर्षि अरविन्द ने सावधान करते हुए लिखा था कि पश्चिमी- विद्वानों ने भारत के दर्शन, धर्म-संस्कृति, कला कौशल, उपनिषद , महाभारत, रामायण आदि सभी को एक ही कोटि में रख कर इन्हें अवर्णनीय बर्बरता का घृणास्पद -स्तूप कह डाला है। भारतीय-संस्कृति के संबंध में पश्चिम के अधिकांश लोगों ने अंग्रेजी में जो पुस्तकें लिखी हैं, वे भारत के संबंध में घृणा से भरी हुई हैं। ध्यान देने की बात यह है कि आगे चलकर जो भारतीय बुद्धिजीवी भारत को दिशा देने आये थे , उनमें से बहुतों ने इन पश्चिमी- विद्वानों की कृतियां पढ कर ही भारत को जाना था। उन्होंने अंग्रेजी में लिखा हो या भारतीय-भाषा में, उन्होंने वही लिखा जो उन्होंने पश्चिमी- विद्वानों की पुस्तकों में पढ़ा था।
वे बुद्धिजीवी मूल -ग्रन्थ इसीलिए नहीं पढ़ सके थे क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते थे और उनका परिचय भारत के सामान्य-जन के जीवन से भी नहीं था क्योंकि सामान्यजन उनकी नजरों में मूर्ख और अन्ध विश्वासी है। अब आज पाँचवीं और छटी पीढी आ चुकी है जो भारतीय-संस्कृति को उन भारतीय लेखकों के सहारे ही जान रही है जिन्होंने उन्हीं पश्चिमी लेखकों की पुस्तकें पढ़कर भारतीय-संस्कृति को जाना था । वह पीढ़ी अपने ही पूर्वजों के प्रति शंका और संशय से ग्रस्त है ! क्या भारत में बर्बर और असभ्य ही रहते थे? किसने कहा था कि मानस की जात सबै एकै पहचानबौ! सबै एक ही स्वरूप सबै एकै जात जानबौ ।किसने कहा था – उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्। किसने कहा था – सर्वे च सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:। संस्कृत के मूलग्रन्थों को देखा नहीं और आप भारतीय संस्कृति को लेकर फ़तवे सुना रहे हैं?
जिन विदेशी लोगों के मन में अपनी श्रेष्ठता का दंभ था, उनके द्वारा किये गये मूलग्रन्थों की दुर्व्याख्या की गयी, उनके अनुवाद पढ़़ने से जो भ्रम पैदा हुए हैं , उनके कारण देश की सामाजिक-राष्ट्रीय एकता में दरार पैदा हुई हैं , आप इतिहास के विद्यार्थी हैं और आप जानते हैं कि यह परस्पर की फूट ही वह मूल कारण था जिसकी वजह से देश बार-बार गुलाम बना। स्वतंत्रता आंदोलन में गीता की भूमिका स्वतन्त्रता के आन्दोलन में राष्ट्र की एकता का, जनता की एकता का अलख जगाया तब गीता को केन्द्र में लाया गया था , चाहे खुदी राम बोस थे या तिलक या महात्मा गांधी। गांधीजी ने गीता का भाष्य किया।
अनेक भ्रम आज भी संस्कृत के प्राचीन-साहित्य के प्रति अनेक भ्रम हैं। संस्कृत के प्राचीन-साहित्य में कोरी आध्यात्मिक- उन्नति की बात है। तो फिर ईशावास्य ने क्यों कहा था, किसके लिए कहा था कि – तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम! भौतिक-जीवन की संपन्नता में सबके हिस्सेदारी या साझेदारी की बात बार-बार दोहराई गयी है। समष्टिवाद: यजामहे ! जब तक हम अपने लिए ही सोचते रहेंगे जब तक मनुष्य सबके लिए सोचना नहीं सीख जायेगा ! भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्म कारणात! अकेले खाता है तो पाप खाता है ! भागवत में युधिष्ठिर के प्रति नारद का वचन है – दिव्यं भौमं चांतरिक्षं वित्तमच्युत-निर्मितं।तत्सर्वमुपभुंजान एतत्कुर्यात्स्वतो बुध:। यावद्भ्रियेद जठरं तावत्स्वत्वं हि देहिनां।अधिकं योभिमन्येत सस्तेनो दंडमर्हति।[श्रीमद्भागवत स्कन्ध ६ अध्याय १४ , श्लोक संख्या ७-८
धरती,अंतरिक्ष के बीच में जो प्राकृतिक संपदा है,वह दिव्य है, ईश्वरप्रदत्त है, उसपर किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं है।उसका अधिकार उतनी संपदा पर ही है।