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- अरुण कुमार कैहरबा
आज बाजार एक बड़ी ताकत का रूप ले चुका है। विशेष तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था में बाजार अपना क्रूर एवं शोषक रूप लेकर हाजिर होता है। एक ताकत के रूप में ही उसकी कोशिश होती है कि मनुष्य अपनी इंसानियत भूल कर उपभोक्ता का रूप धारण कर ले। ऐसे उपभोक्ता जिनके लिए बाजार में बेची जा रही वस्तुएं हासिल करना और उपभोग करना ही प्राथमिकता हो। उपभोक्ता संस्कृति पूंजीवादी व्यवस्था के तरकश के तीर की भांति काम करती है। एक तरफ निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर वित्तीय पूंजी को असीमित छूट प्रदान की जाती है, दूसरी तरफ जीने के लिए खाने की बात को उलट कर खाने के लिए जीने को मनुष्य के जीवन का ध्येय बना देती है। बड़ी पूंजी को केंद्रीय महत्व प्रदान करने वाली राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था में उपभोक्ताओं के अधिकार निश्चित तौर पर हाशिए पर रहते हैं। उपभोक्ताओं को खुले बाजार द्वारा प्रलोभन दिए जाते हैं। ऐसा उपभोक्ताओं को फंसाने, अधिकाधिक लाभ कमाने और अतिरिक्त माल को ठिकाने लगाने के लिए किया जाता है। ऐसी जटिल स्थितियों में ही विश्व उपभोक्ता दिवस जैसे जागरूकता बढ़ाने वाले दिन की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है।
उपभोक्ता आंदोलन का प्रारंभ अमेरिका में हुआ। 15 मार्च, 1962 को अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने कांग्रेस में उपभोक्ता अधिकारों को लेकर जोरदार भाषण दिया। उपभोक्ता इंटरनेशनल द्वारा 15 मार्च को पहली बार 1983 में अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता अधिकार दिवस के रूप में मनाया गया। भारत में 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति जो अपने उपयोग के लिए सामान अथवा सेवाएं खरीदता है वह उपभोक्ता है। इस अधिनियम ने उपभोक्ता के रूप में हमें कुछ अधिकार प्रदान किए -यदि उत्पादक एवं व्यापारी द्वारा अनुचित तरीके का प्रयोग किए जाने के कारण हमें नुकसान होता है अथवा खरीदे गए सामान में यदि कोई खराबी है या फिर किराए पर ली गई वस्तुओं में कमी पाई गई है या फिर विक्रेता ने प्रदर्शित मूल्य से अधिक मूल्य लिया है, इसके अलावा यदि किसी कानून का उल्लंघन करते हुए जीवन तथा सुरक्षा के लिए जोखिम पैदा करने वाला सामान जनता को बेचा जा रहा है तो हम शिकायत कर सकते हैं। वक्त की जरूरतों को पूरा करने के लिए 1986 के कानून के स्थान पर 20 जुलाई, 2020 से नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-2019 लागू हुआ, जिसके तहत जिला, राज्य व राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का गठन किया गया है। उपभोक्ता जिला स्तरीय आयोग में एक करोड़, राज्य स्तर पर एक करोड़ से दस करोड़ तथा राष्ट्रीय आयोग में दस करोड़ से अधिक मूल्य की वस्तु या सेवाओं की शिकायत कर सकता है। उपभोक्ता अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी जिला में जाकर शिकायत कर सकता है।