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अहिंसा के अग्रदूत महात्मा गांधी

  • नृपेन्द्र अभिषेक नृप
    हथकड़ियों में बंद भारत माँ की जंजीर बज रही थी , वह दासता की बेड़ी में तड़प रही थी, दुःख संतप्त मानवता कराह रही थी। मुसीबतों की आंधी बह रही थी, जोर जुल्म का पड़ाव उमड़ रहा था । पूरा देश गुलामी की ज्वाला में प्रज्वलित हो रहा था । तभी दलितों के उत्थान के लिए , पराधीन भारत को आजाद कराने के लिए महामानव बापू का स्वर्ग से भूतल पर 2 अक्टूबर 1869 को अवतरण हुआ। उन्होंने सत्य को पहचाना , करुणा को ढूढ़ा और अहिंसा के मार्ग अपनाया। वे अहिंसा के महान पुजारी थे तथा हिंसा के सख्त खिलाफ थे।
    गांधीजी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दिनों में कुछ प्रयोग किया। 1906 के पश्चात गांधीजी ने यहां अवज्ञा आदोलन प्रारम्भ किया, जिसे ‘सत्याग्रह’ का नाम दिया गया। सत्याग्रह, सत्य एवं अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था। सत्याग्रही यह कभी विचार नहीं करता कि गलत क्या है। वह सदैव सच्चा, अहिंसक एवं निडर रहता है। सत्याग्रही में बुराई के विरुद्ध संघर्ष करते समय सभी प्रकार की यातनायें सहने की शक्ति होनी चाहिये। ये यातनायें सत्य के लिये उसकी आसक्ति का एक हिस्सा हैं। बुराई के विरुद्ध संघर्ष की प्रक्रिया में एक सच्चा सत्याग्रही बुराई करने वाले से अनुराग रखता है, घृणा या द्वेष नहीं। एक सच्चा सत्याग्रही बुराई के सामने कभी सिर नहीं झुकाता, उसका परिणाम चाहे कुछ भी हो। केवल बहादुर एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति ही सच्चा सत्याग्रही बन सकता है। सत्याग्रह, कायर और दुर्बल लोगों के लिये नहीं है। कायर व्यक्ति हिंसा का सहारा लेता है, जिसका सत्याग्रह में कोई स्थान नहीं है।
    गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भली-भांति परिचित हो चुका था। गांधीजी ने निर्णय किया कि वे अगले एक वर्ष तक समूचे देश का भ्रमण करेंगे तथा जनसामान्य की यथास्थिति का स्वयं अवलोकन करेंगे। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक मुद्दे पर कोई सार्वजनिक कदम नहीं उठायेंगे। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे। नरमपंथी राजनीति से उनकी आस्था पहले ही खत्म हो चुकी थी तथा वे होमरूल आंदोलन की इस रणनीति के भी खिलाफ थे कि अंग्रेजों पर कोई भी मुसीबत उनके लिये एक अवसर है। यद्यपि होमरूल आंदोलन इस समय काफी लोकप्रिय था किन्तु, इसके सिद्धांत गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। उनका मानना था कि ऐसे समय में जबकि ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध में उलझा हुआ है, होमरूल आंदोलन को जारी रखना अनुचित है। उन्होंने तर्क दिया कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है- अहिंसक सत्याग्रह। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग की नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते। गांधीजी जानते थे कि भारत में कोई भी व्यापक आंदोलन हिंदुओं और मुसलमानों की एकता के बिना आयोजित नहीं किया जा सकता है। प्रथम विश्व युद्ध हाल ही में तुर्की की हार के साथ समाप्त हुआ था। इस्लामिक दुनिया के आध्यात्मिक प्रधान खलीफा को मुसलमानों इज्जत से देखते थे। चूंकि खलीफा पर कठोर शांति संधि लागू करने की अफवाहें थीं, खलीफा की शक्तियों की रक्षा के लिए मार्च 1919 में बंबई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था। इसलिए, मुस्लिम भाई, मुहम्मद अली और शौकत अली ने ब्रिटिश विरोधी आंदोलन शुरू किया और गांधीजी के साथ एकजुट सामूहिक कार्य की संभावना पर चर्चा की। सितंबर 1920 में हुए कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में, गांधीजी ने अन्य नेताओं को खिलाफत के साथ-साथ स्वराज के भी समर्थन में असहयोग आंदोलन शुरू करने के लिए राजी किया।गांधीजी का ‘करो या मरो’ अत्यन्त ही शक्तिशाली मंत्र था। शब्द शास्त्र के कुशल शिल्पकार बापू के मंत्र का भी देशव्यापी असर पड़ा और यह नारा बाद में ध्येय मंत्र बन गया।9 अगस्त 1942 के दिन इस आंदोलन को लाल बहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने एक बड़ा रूप दे दिया।

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