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कर्म, ज्ञान एवं भक्ति के अद्वितीय शिल्पी भगवान श्री कृष्ण

  • प्रोफेसर रवीन्द्र नाथ तिवारी
    प्रत्येक युग में समाज और धर्म की रक्षा तथा जीवन के विभिन्न पहलुओं में मार्गदर्शन के लिए भारत भूमि अवतार की साक्षी रही है। इसी अनुक्रम में द्वापर में अवतरित भगवान श्री कृष्ण शाश्वत, श्रद्धेय और पूजनीय हैं। भगवान श्री कृष्ण ने विशेष रूप से एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में अपनी भूमिका में मानवीय चरित्र का अद्भुत एवं विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी बाल लीला मन को प्रफुल्लित और वात्सल्य से भर देती है, और योगेश्वर के रूप में दिए गए गीता के उपदेश युगों-युगों से मानवता का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। भगवान विष्णु की पूर्ण अभिव्यक्ति भगवान श्री कृष्ण के रूप में होती है, जो व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक कल्पनीय पहलू को समाहित करती है। भगवान कृष्ण ने जन्म, मृत्यु, दुःख और सुख सहित मानव अस्तित्व के सभी विभिन्न चरणों का अनुभव किया है, इसी कारण उन्हें पूर्णावतार कहा जाता है। भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में हुआ था तथा इनका जन्मोत्सव भारत सहित विश्व के अनेक देशों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। जन्म देवकी और वासुदेव के घर किंतु उनका पालन-पोषण माता यशोदा और नंद बाबा ने किया और जीवन भर उन्होंने माता यशोदा की स्तुति की। इससे यह संदेश मिलता है कि जन्म चाहे कोई भी दे, पालन-पोषण करने वाले की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण होती है। यह भारतीय संयुक्त परिवार की अवधारणा के समान है, जहां दादा-दादी और परिवार के अन्य सदस्य भी बच्चों के पालन-पोषण में योगदान देते हैं, परिणामस्वरूप उनका विकास और चरित्र निर्माण होता है।
    बाल्यकाल में श्री कृष्ण द्वारा माखन चुराना, गोपियों के साथ मेल के प्रसंग जैसे प्रसंग जीवन में आने वाली चुनौतियां से सामना करने और समाज को साथ लेकर आगे बढ़ने का संदेश देते हैं। वर्तमान में यह प्रमाणित है कि गर्भावस्था के दौरान माँ का मानसिक स्वास्थ्य बच्चे के जीवन पर बहुत प्रभाव डालती है। श्री कृष्ण द्वारा मथुरा की ऐसी कठोर परिस्थितियों जन्म लेना जहाँ उनके परिजनों को मार दिया गया था, शायद सबसे चुनौतीपूर्ण जन्म है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जन्म के तुरंत पश्चात श्री कृष्ण ने बारिश में भीगते हुए धात्रेय के घर में शरण ली। उनके जीवन के छठे दिन उन्हें जहर देने का प्रयास किया गया।
    श्री कृष्ण के राजनीतिक जीवन की यात्रा मथुरा के राजा और उनके मामा कंस के वध से मानी जाती है। हस्तिनापुर के शक्तिशाली राज्य और अन्य राजाओं द्वारा किए गए अत्याचार को समाप्त कर तथा अन्याय और अत्याचार के खिलाफ पांडवों का नेतृत्व करने और उनकी जीत तक उनके साथ खड़े रहने में भगवान कृष्ण की अपार आंतरिक शक्ति को दर्शाता है। भगवान कृष्ण न केवल राजनीति में, बल्कि मानव जीवन के सभी पहलुओं में एक प्रेरणा के रूप में कार्य करते हैं, वे परिणाम की चिंता किए बिना कार्य करना सिखाते हैं, और ऐसा उल्लेखनीय उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है। श्री कृष्ण श्रीमद् भगवद् गीता में कहते हैं कि “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥“ (द्वितीय अध्याय, श्लोक 47) अर्थात् कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं, इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
    श्रीमद् भगवद् गीता में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए उपदेश अनादिकाल से मानव जाति का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। “ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥“ (द्वितीय अध्याय, श्लोक 62) अर्थात् विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए कोशिश करें कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहा जाए। उनका कहना था कि “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥“ (तृतीय अध्याय, श्लोक 21) अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।

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