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कृष्ण पाथेय श्रद्धा का ही‌ नहीं, जिज्ञासा का भी हो सकता‌ है प्रकल्प

  • मनोज श्रीवास्तव
    यह कृष्ण- पाथेय का ही उपक्रम होना चाहिए कि पुरातत्व विभाग को इन कृष्ण-स्थलों में उत्खनन के कार्य के लिए अतिरिक्त वित्तीय समर्थन उपलब्ध कराया जाए। स्थलों के लिए ‘कृष्ण-सखा’ के रूप में चिन्हित कर कुछ युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। ‘अंक पात’ की स्मृति में विश्व का आधुनिकतम गणित विश्वविद्यालय या वैदिक गणित संस्थान खोला जाए। वैदिक गणित के अलावा वैशाली गणित जैसी बहुत-सी भारतीय गणित परंपराएं हैं जिनका पठन पाठन शोध यहां हो सकता है। खगोल विज्ञान की विशेष शोधों के लिए नारायणा एक आदर्श स्थान हो सकता है। कृष्ण- पाथेय श्रद्धा ही नहीं, जिज्ञासा का भी प्रकल्प हो सकता है। जहां कृष्ण ने शिक्षा पाई वह शिक्षा का- भारतीय शिक्षा प्रकल्पों की एकत्र शिक्षा का- संपुंज हो सकता है।
    मसलन सांदीपनि ऋषि के आश्रम में चौंसठ विद्याओं या कलाओं की एक दीर्घा बनाने की सुयोग तो संस्कृति विभाग में मुझे प्राप्त हुआ था और आज वह दीर्घा वहां है भी. पर मूल विचार तो वहां इन कलाओं की एक एकेडमी या विश्वविद्यालय बनाने का था, ठीक है कि उन कलाओं में से कुछ एक आधुनिक युग की प्राथमिकता नहीं हो सकती पर अधिकांश तो आज भी उपयोगी हैं।
    यह कृष्ण- पाथेय का ही उपक्रम होना चाहिए कि पुरातत्व विभाग को इन कृष्ण-स्थलों में उत्खनन के कार्य के लिए अतिरिक्त कितीय समर्थन उपलब्ध कराया जाए, जैसे ब्रिटेन में उन्होंने Heritage Guardians के रूप में नागरिकों को भूमिका सौंपी, वैसे ही इन स्थलों के लिए ‘कृष्ण-सखा’ के रूप में चिन्हित कर कुछ युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए. ‘अंक पात’ की स्मृति में विश्व का आधुनिकतम गणित विश्वविद्यालय या वैदिक गणित संस्थान खोला जाए। वैदिक गणित के अलावा वैशाली गणित जैसी बहुत-सी भारतीय गणित परंपराएं हैं जिनका पठन पाठन शोध यहां हो सकता है, खगोल विज्ञान की विशेष शोधों के लिए नारायणा एक आदर्श स्थान हो सकता है. कृष्ण- पाथेय श्रद्धा ही नहीं, जिज्ञासा का भी प्रकल्प हो सकता है. जहां कृष्ण ने शिक्षा पाई वह शिक्षा का- भारतीय शिक्षा प्रकल्पों की एकत्र शिक्षा का- संपुंज हो सकता है।
    यह आवश्यक नहीं है कि कृष्ण पाथेय सिर्फ उनसे जुड़े स्थानों के विकास वाली भौगोलिकी से ही सम्बन्धित हो। यह स्थान परक होते हुए भी क्रियापरक हो सकता है। मसलन सांदीपनि ऋषि के आश्रम में चौंसठ विद्याओं या कलाओं की एक दीर्घा बनाने का सुयोग संस्कृति विभाग में मुझे प्राप्त हुआ था और आज वह दीर्घा वहां है भी। पर मूल विचार तो वहां इन कलाओं की एक एकेडमी या विश्वविद्यालय बनाने का था। ठीक है कि उन कलाओं में से कुछ एक आधुनिक युग की प्राथमिकता नहीं हो सकती पर अधिकांश तो आज भी उपयोगी हैं।
    मसलन जादू एक कला है पर पूरे विश्व में जादू सिखाने वाली दो ही संस्थाएँ हैं, एक दक्षिण अफ्रीका में स्कूल ऑफ मैजिक है। भारत में कुछ ही बड़े जादूगर रह गये हैं जो ऐसी एकेडमी की फैकल्टी बनाए जा सकते हैं। यह तो एक कला है पर 64 कलाओं में से बहुत सी हैं जिनके बारे में आज सिद्धहस्तता नहीं मिलती। विशेष बात ये है कि ये कलाएं राज्याधारित नहीं होकर समाजाधारित हैं, इसलिए इन कलाओं में से किसी एक को भी जानने वाला कभी बेरोजगार नहीं होगा। यह दुखद ही है कि हमारा स्किल डेवलपमेंट मिशन इन कलाओं को अपनी गतिविधियों से समन्वित करता ही नहीं। सच कहें तो उसके स्मरण में, उसके अवधान और संज्ञान में थे कलाएं हैं ही नहीं। अतः कृष्ण पाथेय यदि ऐसी किसी संस्था की स्थापना करे तो युवाओं की चिन्ताओं में एक व्यावहारिक स्तर पर कृष्ण – कृतज्ञता का संचार होगा।
    यानी विरासत और विकास में इतना बड़ा अंतर्विरोध नहीं है जितना विकास और पर्यावरण में है। कोशिश टाइम-टूरिज्म की होनी चाहिए। हमारे यहां भी कोई पैट्रिक राइट जैसा लेखक हो जो ‘आन‌ लिविंग इन एन ओल्ड कंट्री’ जैसी पुस्तक लिखकर विकास की राह खोजे। मार्गरेट थैचर ने जब ब्रिटेन का औद्योगीकरण होते देखा था तो उन्होंने विरासत को ही उद्योग बना दिया था।

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