सूर्यकांत बाली। क्यों कहा जाता है राम को मर्यादा पुरुषोत्तम? क्यों नहीं उन्हें कृष्ण की तरह योगेश्वर कहा जाता। राम और कृष्ण को एक दूसरे से बढ़कर मानने वालों का समाधान तो दुनिया में कोई कर ही नहीं सकता। खुद राम और कृष्ण ही नहीं तो हम भला किसी कतार में आते हैं। कृष्ण का एक हंसता-हंसाता, खिलता-खिलाता व्यक्तित्व है जो किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना को खुद से बड़ा मानता ही नहीं। कहीं भी खुद को नियमों कायदों से बांधता ही नहीं। उनका एक ही कथन है कर्म करो। उनका जीवन कहता है कि जहां भी हो, वहां खुद को व्यवहार से जोड़कर अपनी बात कहो।
इस ढंग से कहो, करो कि सर्वातिशयी बन जाओ। इसलिए कृष्ण सब जगह लिप्त और कर्मशील नजर आते हुए भी निर्लिप्त और निष्काम बने रहे, अग्र पूज्य योगेश्वर हो गए। पर राम की एक भारी दुविधा है। वह नियम नहीं तोड़ सकते, मर्यादा नहीं लांघ सकते इसलिए सब जगह अपनी छाप छोड़ने वाले कृष्ण का व्यक्तित्व आकाश के समान असीम है और मर्यादा की रेखा को कभी न लांघने का संकल्प पूरा करने वाले राम का व्यक्तित्व समुद्र के समान गहरा है। दोनों को नापना कठिन है। दोनों को ही उनके परले छोर तक देख पाना आसान नहीं है, पर आंक पाना इतना मुश्किल नहीं कि राम के जीवन में ऐसा क्या हुआ कि वह पुरुष से पुरुषोत्तम हो गए। मर्यादा की रक्षा करने की समुद्र की श्रद्धा पूर्णिमा की रात को नजर आती है जब लगता है कि उसके पानी का यह उद्दाम उछाल पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लेगा पर वह अपने पानी को किनारे की मर्यादा नहीं लांघने देता और सारे ज्वार को अपने पेट में समो लेता है। राम भी ऐसे ही हैं। उनके सामने जब भी संकट आए तो उन्होंने अपने लाभ की बजाय मर्यादा की रक्षा को ज्यादा महत्व दिया। उन्हें हानि हुई, उन पर आक्षेप लगे, वह कटु आलोचना का पात्र भी बने, ‘इतिहास तुम्हें कभी नहीं माफ करेगा’ ऐसे ताने उनके लिए थे। पर उनके लिए
पहला स्थान था मर्यादा का, उसकी स्थापना का, उसकी रक्षा का।
आखिर क्यों राम ने अपने हृदय की भावनाओं को कुचलकर हमेशा मर्यादा की रक्षा की। इसलिए कि राम एक व्यक्ति थे और नायक भी। नायक का उनका व्यक्तित्व राजा के रूप में व्यक्त हुआ है। राम एक सिद्धांत से प्रभावित थे कि अगर नायक कहीं गड़बड़ी करता है तो प्रजा उसे आदर्श मानकर वैसा बरतना शुरू कर देती है। यह विडंबना है कि राम ने हर संकट का समाधान मर्यादा पालन में ढूंढ़ा और खुद वे नितांत अकेले रह गए। राम का अपना जीवन इतना अकेला और कारुणिक था कि उसका सदा प्रवाहपूर्ण पर भावना प्रबल वर्णन करने के कारण वाल्मीकि की रामायण को करुण रस का अवतार मान लिया गया। पर अगर राम ऐसा जीवन न चुनते तो हजारों सालों से चला आ रहा एक ऐसा प्रकाश स्तंभ भी वह न बन पाते जिसने राजा राम के मर्यादा पुरुषोत्तम रूप से इस देश की जनता को हर संकट में सहारा भी दिया और दिशा भी बताई है।