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राजनीतिक चंदे की पारदर्शी व्यवस्था बनाना जरूरी

  • ललित गर्ग
    वर्ष 2024 के आम चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं,राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का मुद्दा एक बार फिर गरमा रहा है। लोकतंत्र की एक बड़ी विसंगति या कहे समस्या उस धन को लेकर है, जो चुपचाप, बिना किसी लिखा-पढ़ी के दलों, नेताओं और उम्मीदवारों को पहुंचाया जाता है, यानी वह काला धन, जिससे देश के बड़े राजनीतिक आयोजन चलते हैं राजनैतिक रैलियां, सभाएं, चुनाव प्रचार होता है। उम्मीदवारों के साथ-साथ मतदाताओं को लुभाने एवं उन्हें प्रलोभन देने में इस धन का उपयोग होता है। जब से चुनावी बॉन्ड से राजनीतिक दलों को चंदा देने का प्रचलन शुरु हुआ है, राजनीतिक दलों को इससे मिलने वाली राशि में काफी इजाफा हुआ है। देश के सात राष्ट्रीय और चौबीस क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की ओर से सार्वजनिक किए गए आमदनी के ब्योरे से यह खुलासा हुआ है। एडीआर द्वारा किए गए इस ब्योरे के विश्लेषण से पता चला है कि वर्ष 2017-18 में जब से चुनावी बॉन्ड योजना शुरू हुई, तब से अब तक राजनीतिक दलों को प्राप्त चंदे की कुल रकम 16,347 करोड़ रुपए में 55.9 फीसदी हिस्सा चुनावी बॉन्ड का है। कारपोरेट चंदे का हिस्सा महज 28.7 फीसदी और अन्य स्रोतों से प्राप्त रकम मात्र 16.03 फीसदी है।
    किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना आज राजनीति का सामान्य लक्षण हो गया है। अगर कोई चुनाव जीत जाता है तो उसने चाहे जितने गलत और चाहे जितने क्षुद्र तरीके अपनाए हों, चाहे जिन हथकंडों का सहारा लिया हो, उसे कुछ भी गलत नजर नहीं आता, उसे कोई अपराध-बोध नहीं सताता, वह मान कर चलता है कि उसके गुनाहों पर परदा पड़ गया है। जबकि लोकतंत्र तभी फूलता-फलता है जब चुनाव ईमानदार, स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी हों। दोहरा राजनीति चरित्र लोकतंत्र के लिये सबसे घातक है और ऐसे ही चरित्र की निष्पत्ति है राजनीतिक चंदे का एक नया स्वरूप चुनावी बॉन्ड। चंदा देने वाले कॉरपोरेट ऐसे धारक बॉन्ड खरीद सकते हैं और बिना पहचान बताए राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकते हैं। चुनावी बॉन्ड आरबीआई जारी करता है। राजनीतिक पार्टियों को दान देने वाला बैंक से बॉन्ड खरीद सकेगा और दान देने वाला किसी भी पार्टी को बॉन्ड दे सकेगा। राजनीति चंदे पर नियंत्रण एवं उसकी पारदर्शिता कैसे संभव होगी? समस्या और गहरी होती हुई दिखाई दे रही है।
    गौरतलब है कि वर्ष 2017 में वित्त अधिनियम में बदलाव कर कंपनियों के लिए तीन साल के कुल लाभ का 7.5 फीसदी चुनावी चंदा देने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई थी। उसके बाद कॉरपोरेट चंदे में कमी और चुनावी बॉन्ड से चंदे में बढ़ोतरी का ट्रेंड दिख रहा है। चुनावी चंदा 748 फीसदी (2017-18 से 2021-22 तक) बढ़ा है तो कॉरपोरेट चंदा मात्र 48 फीसदी। इस ट्रेंड से इतना तो कहा ही जा सकता है कि कॉरपोरेट चंदे की रकम अब बॉन्ड की ओर शिफ्ट हो रही है। जाहिर है, नियम में बदलाव से कंपनियों को अपनी सफेद कमाई का हिस्सा चुनावी चंदे में खर्च करने की अनिवार्यता समाप्त हो गई है। इन्हें पारदर्शिता की कमी के चलते चुनावी बॉन्ड से राजनीतिक दलों को उपकृत करना मुफीद लगने लगा है।
    उद्योग जगत के सहयोग के बिना चुनावी बॉन्ड के हिस्से में इतनी बड़ी रकम आना संभव नहीं है। तथ्य यह भी है कि चुनावी बॉन्ड से किसने किस दल को कितनी रकम दी है, इसका खुलासा करने का प्रावधान है ही नहीं। पिछले छह साल में चुनावी बॉन्ड से भाजपा को 5271.97 करोड़ रुपए (52 फीसदी), कांग्रेस को 952.29 करोड़ रुपए (61.54) और तृणमूल कांग्रेस को 767.88 करोड़ रुपए (93.27 फीसदी) रकम हासिल होना दानदाताओं की सहूलियत को ही दर्शाता है। इसे अच्छा चलन माना जा सकता था, बशर्ते समूची प्रक्रिया पारदर्शी होती, लेकिन राजनीतिक दलों की सुविधा के लिये ऐसी पारदर्शिता देखने को नहीं मिलती है।

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