119
- आलोक मेहता
लाल किले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब तिरंगा झंडा फहराने के साथ भारत की नई शक्ति और उज्जवल भविष्य पर देश – दुनिया को सम्बोधित करेंगे, तो हर सामान्य भारतीय का सिर और मन गौरवान्वित होगा। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने और लोकतंत्र को बनाए रखने के साथ आर्थिक महाशक्ति का सपना साकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस सन्दर्भ में मुझे देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति और आर्थिक स्वप्नदर्शी जे आर डी टाटा द्वारा 1992 में भारत रत्न का सम्मान मिलने के बाद कही गई एक बात ध्यान में आती है। श्री टाटा ने कहा था कि ‘मैं नहीं चाहता कि भारत आर्थिक महाशक्ति बने। मैं चाहता हूँ कि भारत एक सुखी देश बने। ‘तब नरसिंह राव और मनमोहन सिंह आर्थिक नीतियों में बदलाव ला रहे थे। 30 वर्षों में बहुत कुछ बदला है। मोदी ने भी नौ वर्षों में आर्थिक क्रांति के कई बड़े निर्णय लिए हैं।
अमेरिका और चीन जैसे देशों के साथ प्रतियोगिता करते हुए इस बात को ध्यान देना जरुरी है कि भौतिक दृष्टि से कोई भी सफलता या उपलब्धी तब तक सार्थक नहीं होगी जब तक वह देश और उसकी जनता की आवश्यकताओं या हितों को पूरा न करे तथा उचित और ईमानदार ढंग से प्राप्त न की गई हो। बाजार में उछाल या भव्य शॉपिंग माल की ऊंचाइयों से सुपर पावर और सुखी भारत नहीं कहलाया जा सकता है। असमानता की खाई पाटना असली लक्ष्य रखना होगा। तभी तो अब लाल किले या सरकारी भवनों पर ही नहीं हर घर और हर नागरिक को तिरंगा फहराने का गौरव मिल रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गोवा से सुदूर नागालैंड – अरुणाचल तक तिरंगे की शान के साथ सड़क मार्गों से लेकर रेल और हवाई मार्गों से देश के लोग अधिकाधिक करीब आते जा रहे हैं।
आजादी का उत्सव मनाने के साथ सत्ता व्यवस्था, संसद, न्याय पालिका और सेना से बड़ी अपेक्षाएं होना स्वाभाविक है। लेकिन अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों का अहसास क्या जरुरी नहीं है? संसद से लेकर सोशल मीडिया तक अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग कर समाज में नफरत, हिंसा, विरोध के नाम पर भोले भाले लोगों को भड़काना क्या राष्ट्र द्रोह से कम है। अब संसद में सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी से लेकर सबसे नई आम आदमी पार्टी के नेता सदन में कैसी भाषा और व्यवहार का उपयोग कर रहे हैं? पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी आधुनिक समाज और संस्कृति के समर्थक हो सकते हैं, लेकिन संसद में आंख मारना, फ्लाइंग किस ( चुम्बन ) लहराते आनंदित हों और उनकी पार्टी इसे सही ठहराए, क्या यह किसी अन्य लोकतांत्रिक देश की संसद में भी उचित कहा जा सकेगा। पश्चिमी समाज में पारस्परिक भेंट के समय गाल पर चुम्बन को सामान्य कहा जाता है, लेकिन भारत की संसद या अदालत में ऐसा व्यवहार उचित कहा जा सकेगा? अधीर रंजन चौधरी कभी अति वामपंथी माओवादी समर्थक रहे थे, लेकिन लोक सभा में कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए जिस तरह प्रधानमंत्री के लिए निहायत अनुचित गालियों जैसी भाषा का उपयोग कर अट्टहास करते हुए क्या संसदीय गरिमा को नहीं गिरा रहे हैं?
आजकल कांग्रेस के नेता आजादी पर खतरे की बात कर रहे हैं। इसलिए 13 अगस्त 1954 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु द्वारा सम्पादकों के एक कार्यक्रम में कही गई महत्वपूर्ण बात का उल्लेख उचित होगा। नेहरु ने कहा – ‘मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि अमूर्त स्वतंत्रता जैसी कोई वस्तु नहीं होती। स्वतंत्रता दायित्व से सम्बद्ध है, चाहे वह राष्ट्र की स्वतंत्रता हो या व्यक्ति की स्वतंत्रता या समूह की स्वतंत्रता या प्रेस की स्वतंत्रता। इसलिए जब कभी हम स्वतंत्रता के प्रश्न पर विचार करें, तब हमें कर्तव्य के बारे में भी अनिवार्य रुप से विचार करना चाहिए, जो स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय प्रतिपक्ष अथवा कुछ लोगों का यह मातम अजीब है कि देश में लोकतंत्र ख़त्म हो गया, देश बर्बादी के कगार पर है, गरीबों के बजाय केवल दो चार उद्योगपतियों – व्यापारियों को अरबों रुपया दे दिया गया। गरीबी, बेरोजगारी की समस्या से कोई सरकार न इंकार कर सकती है और न ही उसके लिए बेबस हो सकती है। राहुल गांधी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अम्बानी अडानी औद्योगिक समूहों को ही लाभ पहुंचाने के आरोप लगाते हैं, तो यह कैसे भूल जाते हैं कि कांग्रेस के सत्ता काल में ही ये उद्योगपति सफल होकर आगे बढ़े और आज भी उनके शासित राज्यों में करोड़ों की पूंजी वैधानिक तरीकों से लगा रहे हैं। अमेरिका में आर्थिक समस्याओं के लिए क्या ऐसे व्यापारिक समूहों को संसद में दोषी ठहराया जा रहा है?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में अब भी आबादी का एक हिस्सा अंध विश्वास , कम शिक्षित और बेहद गरीबी से प्रभावित है। उसे भ्रामक प्रचार से उत्तेजित कर हिंसक उपद्रव में शामिल करने के लिए निहित स्वार्थी संगठन और विदेशी एजेंसियों के षड्यंत्र होते रहते हैं। मणिपुर में भयावह हिंसा और समस्या को और भड़काने तथा मिजोरम जैसे राज्य को चपेट में लाने के प्रयास सोशल मीडिया के बल पर हुए हैं। इसलिए चाहे राजनीति हो अथवा मीडिया, आजादी अभिव्यक्ति के अधिकारों पर एक हद तक सीमा रेखा तय करना आवश्यक है। सरकार और संसद ने इस उद्देश्य से नए नियम कानून का प्रावधान किया है। न्यायालय को भी इस तरह की सीमाओं को रेखांकित करना चाहिए। उम्मीद है कि इस बार 15 अगस्त पर लाल किले के भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उपलब्धियों और भावी प्रगति की चर्चा के साथ आजादी और अभिव्यक्ति के अधिकारों पर गौरव के साथ देशवासियों को अपने कर्तव्यों के पालन, अनुशासन के लिए भी संकल्प लेने का आग्रह करेंगे।