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भारतीय विवाह संस्था अथवा व्यक्तिगत आजादी

  • डॉ. विशेष गुप्ता
    अभी हाल ही में समलैंगिक विवाह के मामले में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश करते हुए साफ कहा है कि वह समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में नहीं है। सरकार का स्पष्ट मत है कि भारतीय समाज में विवाह स्त्री व पुरुष के बीच एक ऐसा भावनात्मक रिश्ता है जो सन्तति को जन्म दे सके। अगर समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान की जाती है तो सामाजिक रुप से स्वीकृत विवाह संस्था और व्यक्तिगत आजादी से जुड़े कानूनों के बीच टकराव की स्थिति बनेगी। उच्चतम न्यायालय ने पिछले दिनों ही सुनवाई में मदद के लिए केन्द्र सरकार व अटार्नी जनरल को नोटिस जारी करके सरकार से इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था। गौरतलब है कि प्रधान न्यायधीश डीवाई चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने समलैंगिक विवाह करने के अधिकार पर अमल करने और स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अपने विवाह को पंजीकृत करने के निर्देश देने की मॉग कर रहे दो समलैंगिक जोड़ों की ओर से पेश वरिष्ठ वकीलों की दलीलें सुनने के बाद नोटिस जारी किये थे। उस समय कोर्ट को यह भी बताया गया था कि केरल हाई कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट में भी ऐसी याचिकायें लंबित हैं। याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी का साफ कहना था कि इस मसले पर वह किसी धर्म की भावनाओं को आहत किये बिना केवल स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत समलैंगिक विवाह की कानूनी मान्यता देने की मॉग कर रहे हैं। दरअसल देखा जाय तो यह मुद्दा नवतेज सिंह जौहर (समलैगिक संबध) और पुत्ता स्वामी (निजता का अधिकार) मामले में दिये गये फैसले की आगामी कड़ी है। पिछले दिनों ही शीर्ष अदालत में दो याचिकायें और दाखिल की गईं थीं। इनमें एक हैदराबाद के सुप्रियो चक्रवर्ती व अभय डॅागं ने दाखिल की थी और दूसरी याचिका फिरोज महरोत्रा व उदयराज की ओर से दाखिल की गई थी। दोनों याचिकाओं के परीक्षण पर शीर्ष अदालत ने अपनी सहमति दे दी थी। परन्तु इसी के साथ साथ विशेष विवाह कानून के तहत विवाह की समानता की मॉग वाली एक और याचिका भी वकील शादान फरासत की ओर दाखिल की गई है जो विचार के लिए वह अभी लंबित है।
    उच्चतम न्यायालय के इस लचीले रूख के तहत समलैंगिक विवाहों को लेकर देश में एक अच्छा खासा तीव्र विमर्श शुरू हो गया था। परन्तु केन्द्र सरकार के भारतीय विवाह संस्था के संरक्षण से जुड़े इस हलफनामे के बाद इस मसले पर विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक संविधान पीठ का गठन कर दिया है जो इसके सभी पहलुओं पर विचार करने के पश्चात अपना निर्णय देगी। स्मरण रहे इसके पक्षकारों ने अपनी लैंगिकता को लेकर पिछले दिनों दिल्ली, चेन्नई, बंगलौर एवं भुवनेश्वर में गे-प्राइड परेड का आयोजन करते हुए समलैंगिक रिश्तों को बनाये रखने की बकालत की थी । इसके पक्षकारों का साफ कहना था कि यह कानून 1860 में लार्ड मैकाले के द्वारा बनाया गया था जो हमारे जीवन जीने की स्वतत्रंता को बाधित करता है। हालॉकि भारत में भी साढ़े चार साल पहले तक समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा गया था। परन्तु सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दो समलैंगिकों को साथ रहने की आजादी प्रदान कर दी गई। दूसरी ओर धारा 377 समाप्त करने पर केन्द्र सरकार के प्रयासों का उस समय विभिन्न धर्म गुरूओं ने भी कड़ा विरोध किया था। समलैंगिक व्यवहार से जुडी घटनायें अभी तक विदेशों में अधिक सुनाई पड़ती थी। परन्तु अपने देश में भी समलैंगिक सम्बन्धों का ढांचा अब खुलकर सामने आ रहा है। पिछले दिनों दोस्ताना, माई ब्रदर निखिल, हनीमून ट्रेवल, पेज थ्री , फायर तथा गर्ल फ्रैन्ड जैसी फिल्मों ने अपने कथानक के माध्यम से दर्शकों को समलैंगिक सम्बन्धों के विषय में सोचने व, विचार करनेे को मजबूर कर दिया था।
    देश की आजादी के पूर्व एवं बाद में समलैंगिकता को लेकर कई बार बहस-मुबाहिसों का दौर चला, परन्तु देर-सबेर यह बहस पृष्ठभूमि में जाती रही। वर्तमान में समलैंगिक यौन व्यवहार से जुड़े उस माहौल को लेकर आज जो विमर्श शुरू हुआ है उसका तात्पर्य यह है कि यदि समाज का कोई वर्ग अपनी सामाजिक- सांस्कृतिक मान्यताओं से बगावत करते हुए कोई विपरीत रास्ता अपनाता है तो क्या समाज को उन्हें इस विकल्प को चुनने की आजादी दे देनी चाहिए ? हालंाकि अभी यह विमर्श अपनी शैश्वास्था में है । परन्तु न्यायालय के लचीेले रूख के कारण इस विमर्श में तेजी आने की पूर्ण सम्भावनाऐं हैं। देखा जाय तो अभी हमारा समाज मानसिक तौर पर इतना आधुनिक नहीं हो पाया है जो इस प्रकार के प्रकृति के विरूद्ध एवं असामान्य व्यवहार को सीधे तौर पर स्वीकार कर सके। लेकिन यहाँ यह भी यथार्थ है कि वर्तमान की सामाजिक व्यवस्था में इस प्रकार के समलैंगिक सम्बन्ध रखने वालों से सीधे रूप से मुँह भी नहीं मोड़ा जा सकता। यह एक ऐतिहासिक कडवी सच्चाई है कि समलैंगिकता इतिहास में किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। लेकिन हम उसकी चर्चा करने में हिचकिचाते रहे हैं। अधिकांशतः इस प्रकार का व्यवहार वहाँ अधिक पाया जाता रहा है जहाँ एकलिंगीय लोगों का बाहुल्य रहा हो। इनमें मानसिक चिकित्सालयों, जेल, हॉस्टल, विभिन्न प्रकार के सुरक्षाबलों तथा दरबार के नबावों से जुड़ा समलैंगिक व्यवहार पुरूषों में अधिक दिखाई पड़ता है। दूसरी ओर महिला कालेज, हॉस्टल, महिला आश्रम के साथ में अविवाहित कन्याओं, विधवा व परित्यक्ता इत्यादि महिलाओं के बीच में समलैंगिक व्यवहार प्रचलन में रहा है।
    कहना न होगा कि विरासत में प्राप्त संास्कृतिक सीमाओं से पूर्णतयाः बाहर जाकर यदि कोई व्यक्ति व्यवहार के मानकीकृत मानदण्डों के विपरीत व्यवहार का कोई विकल्प चुनता है तो यह उनकी निजी जिन्दगी की आजादी का हिस्सा तो हो सकता है, परन्तु साफतौर पर यह पारिवारिक संस्कृति एवं संस्था के लिए चुनौती जरूर रहेगी। दरअसल आज समलैगिकता का यह मसला केवल साथ साथ रहने का ही मसला नहीं है,बल्कि विशेषज्ञों का मानना है कि समलैगिकों को यह अधिकार न मिलने से उन्हें अनेक अधिकारों से वंचित होने का बड़ा खतरा भी है। इतना जरुर है कि इस मसले पर कानूनी जिद्दोजहद से भविष्य में समलैंगिक व्यवहार जैसी विसंगतियों में और अधिक तेजी आने की सम्भावनायें तो रहेंगी ही। अब देखना यह है कि केन्द्र सरकार के उचित व संस्कृतिरक्षक पक्ष को भार प्रदान करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत भारतीय विवाह संस्था और समलैंगिक लोगों की व्यक्तिगत आजादी के बीच किस प्रकार समायोजन करती है।

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