- रमेश शर्मा
भारत में परतंत्रता के लंबे अंधकार और विदेशी शासकों द्वारा भारतीय समाज का ताना बाना ध्वस्त करने के षड्यंत्र से बेबस घूमन्तु समाज के स्वत्व जागरण और उन्हे पुनः हिन्दू समाज से एकात्म करने का एक महा प्रयास सामने आया है। इसके लिये महाराष्ट्र के जलगांव क्षेत्र में एक विशाल बंजारा महाकुंभ का आयोजन होने जा रहा है । इस समागम में गौर, लबाना, बंजारा आदि घूमन्तु वर्गों के अतिरिक्त सनातन समाज के स्वनामधन्य धर्म गुरु और अन्य समाज सेवी को भी सम्मिलित हो रहे है जिससे समस्त सनातन हिन्दू समाज के स्वरूप में एकत्व की स्थापना हो सके । धर्म जागरण मंच जलगांव द्वारा गोदी जामनेर क्षेत्र में आयोजित यहह बंजारा महाकुंभ भव्य समागम का आयोजन 25 से 30 जनवरी के बीच हो रहा है । इस अनूठे समागम में लगभग दस लाख लोगों के भाग लेने की संभावना है जिसमें गौर, लबाना बंजारा समाज के लोग अपने परिवार सहित आयेंगे। इनके अतिरिक्त सनातन समाज के अनेक साधु-संत, दंडीस्वामी और महामण्डलेश्वर भी शामिल हो रहे हैं। महामंडेश्वर चैतन्य स्वामी, महामंडेश्वर जनार्दन हरीजी और महामंडेश्वर गोपाल चैतन्य जी ने सनातन समाज के सभी धर्म प्रमुखों से समागम को सफल बनाने आव्हान किया है।
इसकी तैयारियों को देखकर इस समागम की भव्यता और व्यापकता का अनुमान लगता है । आयोजन स्थल ढाई सौ एकड़ में फैला है । आगन्तुक अतिथियों और सहभागियों के लिए सात नगरों का निर्माण किया गया है। इस महा प्रांगण में आयुर्वेद चिकित्सा के विशेषज्ञ और गौसेवक धोंडीराम बाबा का एक मंदिर निर्माण और गुरु नानक देव के ज्येष्ठ सुपुत्र आचार्य श्री चंद्रबाबा की प्रतिमा भी स्थापित की जा रही है । घूमन्तु बंजारा समाज में इनके प्रति अगाध आस्था है। इस बंजारा कुंभ के आयोजन का उद्देश्य समस्त हिंदू समाज को एक धारा में जोड़ना है। गौर बंजारा और लबाना आदि घुमन्तु समुदाय की सनातन हिन्दू समाज से दूरियाँ बढ़ रहीं थीं। आयोजन का उद्देश्य उन दूरियों को समाप्त कर समस्त सनातन हिन्दू समाज में एकत्व और समरसता स्थापित करना है।
भारतीय बंजारा समाज शोध कर्ताओं के लिए सदैव जिज्ञासा का केन्द्र रहा है। भारतीय और पश्चिमी विश्वविद्यालयों द्वारा अनेक अनुसंधान हुये हैं और सबने अपनी अपनी धारणाएँ स्थापित करने का प्रयास किया है। पर इसमें कोई दो राय नहीं कि समस्त घूमन्तु वर्ग और बंजारा समाज विशाल हिन्दू सनातन समाज का अभिन्न अंग है उनका रहन-सहन और रीति-रिवाज राजस्थान के लोक जीवन से मिलता है । उनके गौत्र भी राजपूत गौत्र से मेल खाते हैं। समय के साथ उनके भीतर आस्था के प्रतीकों की वृद्धि तो हुई है पर मूल रूप से देवी साधना पूजा पद्धति भी भारतीय सनातन एवं राजपूत समाज से मेल खाती है । पर यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इनका कोई स्थायी निवास या ठिकाना क्यों न बन पाया। ये किसी ग्राम के स्थायी निवासी या कहीं कृषि भूमि के स्वामी क्यों न पाये। इनके पास वनोषधियाँ होतीं हैं उनकी पहचान भी होती है। पर ये उसके भी व्यापारी नहीं बन पाये। इसके दो ही कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि सभ्यता विकास के आरंभिक काल में ये राज्य स्थापना अथवा राजपूत परंपरा के विकास के पूर्वज हों। चूँकि यह घूमन्तु बंजारा समाज राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि प्रांतों में भ्रमण करता है । यहीं से देश के अन्य भागों में विचरण को गया ।
यह समूह मूल रूप से राजस्थान अरावली पर्वत की छाया में विकसित हुआ है। अरावली पर्वत हिमालय से भी प्राचीन है। अनेक भौगोलिक परिवर्तनों और उतार चढ़ाव के बीच भी अरावली से लेकर सतपुड़ा और विन्ध्याचल के बीच की धरती में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ । इसलिए इस क्षेत्र की मानव सभ्यता को उतनी क्षति नहीं हुई जितनी विश्व के अन्य भागों में हुई। बंजारा शब्द शुध्द संस्कृत का शब्द है। जो वनचारी या वनचारा से अपभ्रंश होकर बना । इसलिए यदि यह माना जाता है कि ये राजपूत परंपरा के जनक हैं । अनुसंधान का दूसरा निष्कर्ष यह है कि राजस्थान और मालवा मध्यकाल के सतत आक्रमणों से आक्रांत रहा। इनसे बचने के लिये ये लोग परिवार सहित चलायमान हो गये। वे अपनी संस्कृति और परंपरा को साथ लेकर चले। अंग्रेजी राज ने वन संपदा पर अधिकार करने का अभियान चलाया तब इन्होंने प्रतिकार भी किया। इन्होंने प्रत्येक काल-खंड में छापामार युद्ध भी किये। इस कारण प्रत्येक विदेशी शासन ने इनका दमन किया । सल्तनत काल में भी और अंग्रेजी राज में भी । ये अंग्रेजों द्वारा वन संपदा शोषण का सबसे प्रबल प्रतिकार वनवासी और बंजारा समाज ने ही किया।
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