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- आलोक मेहता
‘अनुभव ने यह दर्शा दिया है कि केंद्र में गठबंधन कभी कार्य नहीं कर पाए हैं । … गठबंधन में केबिनेट पदों पर समझौते किये गए। गठबंधन के हिस्सेदारों का महत्व सरकार को गिराने की उनकी क्षमता के प्रत्यक्ष अनुपात में था। हमने ऐसी सरकार देखी जिसने सरकार के कार्य की अपेक्षा गठबंधन के भागीदारों को संतुष्ट करने में ज्यादा समय बिताया। वह इस बात के लिए अभिशप्त थी कि इन अंतर्कलहों को दूर करने के लिए अपनी समूची ताकत खर्च करे। ’
यह उद्धरण प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा के किसी चुनावी पत्र का नहीं है। उपरोक्त अंश भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा 1999 के लोकसभा चुनाव के लिए जारी पार्टी के घोषणा पत्र का है , जिस पर पार्टी की तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी का चित्र और पार्टी का चुनाव चिन्ह – पंजा छपा हुआ है। कांग्रेस तब भी सत्ता में नहीं थी और भाजपा उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। इसलिए अब भी सोनिया – राहुल और प्रियंका के नाम और नेतृत्व का झंडा उठाकर पटना, बेंगलूर, मुंबई, दिल्ली दौड़ रहे एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर की तरह एक्सीडेंटल कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और उनके साथियों द्वारा किसी भी कीमत पर समझौतों के साथ गठबंधन के लिए बेताबी देखकर अजीब सा लगता है। राहुल गाँधी अक्टूबर में जिस गुजरात से दूसरी पद यात्रा शुरू करने की बात कर रहे हैं, लगभग 50 साल पहले गांधीनगर (अक्टूबर1972) में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में एक संवाददाता के रुप में मैंने श्रीमती इंदिरा गाँधी, जगजीवन राम , शंकर दयाल शर्मा, सरदार स्वर्ण सिंह) जैसे शीर्ष कांग्रेसी नेताओं को सोशलिस्ट , जनसंघ, कम्युनिस्ट सहित प्रतिपक्ष की पार्टियों के विरुद्ध आग उगलते सुना था। इसलिए अब कांग्रेस की नई राह को मजबूरी माना जा सकता है। लेकिन यह मज़बूरी केवल भाजपा विरोध की नहीं, पार्टी के संगठन की कमजोरी और दुर्दशा की परिचायक है ।
किसी भी सरकार की कठिनाइयों का फायदा उठाना विपक्ष की राजनीति का अंग रहा है । लेकिन केवल सरकार को परेशानी में डालने के लिए कठिनाइयां उत्पन्न करना, सांप्रदायिक हिंसा तनाव या सुरक्षा से जुड़े मामलों से राजनीतिक लाभ उठाने के प्रयास को लोकतंत्र के अनुकूल नहीं कहा जा सकता है। हाल ही में मणिपुर में हुई भयावह हिंसा की घटनाओं और हरियाणा के साम्प्रदायिक उपद्रव पर ही नहीं पाकिस्तान के आतंकवादी हमलों और चीन द्वारा किए गए सीमा पर अतिक्रमण के सैन्य प्रयास पर कांग्रेस का रवैय्या लोकतंत्र के लिए घातक ही माना गया है। कांग्रेस पार्टी राहुल गाँधी को अधिकाधिक महत्व देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार के विरुद्ध अभियान चला रही है। राहुल गाँधी को पहली भारत जोड़ो यात्रा तथा सांसदी वापस मिलने से छवि सुधारने का लाभ मिला है। लेकिन लालू यादव परिवार की राष्ट्रीय जनता दल, अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, स्टालिन की द्रमुक, ममता की तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की टूटी-फूटी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, उद्धव ठाकरे की बिखरी शिव सेना के साथ राहुल खड़गे की कांग्रेस पार्टी के समझौतों – गठबंधन की कोशिशों से सामान्य जनता में ही नहीं पार्टी के पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं में गहरा असंतोष उत्पन्न हो रहा है।
गठबंधन के अनुभव कांग्रेसी नेताओं ने ही नहीं प्रतिपक्ष के नेताओं ने भी देखे – झेले हैं। 1967, 1977, 1979 ही नहीं 1991, 1996, 1997,1998 में भी देख चुके हैं। चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर और इन्दरकुमार गुजराल तो अब नहीं रहे, लेकिन एच डी देवेगौड़ा अब तक कांग्रेस के दिए घाव याद करते हैं। पता नहीं 1998 के गठबंधन को कांग्रेस के युवराजों को याद है या नहीं, लेकिन रिकॉर्ड में दर्ज है कि 28 नवम्बर को पुराने कांग्रेसी इन्द्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चे की सरकार को कांग्रेस ने इसलिए गिरा दिया था क्योंकि मजबूरी वश मंत्रिमंडल से द्रमुक के मंन्त्रियों को नहीं हटाया जा रहा था। कांग्रेस इस बात से खफा थी कि जब राजीव गाँधी हत्या कांड में द्रमुक नेताओं के सहयोग के तथ्य जैन आयोग ने रख दिए हैं, तो उस पार्टी के नेता सरकार में कैसे रह सकते हैं। नतीजा यह हुआ कि इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक दलों को सात साल राज करने को मिल गए और भाजपा की शक्ति बढ़ती चली गई। फिर 2014 और 2019 में तो कांग्रेस का सफाया सा हो गया और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा भारी बहुमत से सरकार चलते हुए ऐतिहासिक निर्णय लेती गई है। कांग्रेस के नेता अब द्रमुक ही नहीं इंदिरा राजीव गाँधी की पार्टी और उनकी सरकारों का घोर विरोध करने वालों लालू यादव, अखिलेश मुलायम सिंह यादव जैसे कई क्षेत्रीय नेताओं की पार्टियों से हर संभव समझौतों के लिए तैयार हैं।
यह मज़बूरी इसलिए है क्योंकि बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों में कांग्रेस का ढांचा खंडहर की तरह है। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो पिछले चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार जमानत बचाने लायक वोट तक नहीं पा सके। आगामी लोक सभा चुनाव के लिए इसी सप्ताह कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष पद पर अजय राय को नियुक्त किया, जो वर्षों तक भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के नेता के रुप में कांग्रेस और उनके प्रादेशिक नेताओं का राजनीतिक अस्तित्व मिटा रहे थे। हाँ पिछले लोक सभा चुनाव में अवश्य कांग्रेस उम्मीदवार बनकर नरेंद्र मोदी से बुरी तरह पराजित हुए थे। मतलब कांग्रेस के पास अपने किसी पुराने नए नेता को बागडोर देने की स्थिति नहीं है या केंद्रीय नेताओं को अपनों पर विश्वास नहीं है। बिहार के लिए राहुल गाँधी बार बार लालू और नीतीश कुमार से समर्थन की कृपा के लिए नत मस्तक हो रहे हैं। सोनिया गाँधी के विरोध में कांग्रेस तोड़ने वाले शरद पवार के दरबार में विनय पत्रिका भेजकर गठबंधन को दिशा मार्गदर्शन देने की गुहार लगा रहे हैं।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस संगठन का आधार रहे सेवा दल और महिला कांग्रेस को कई वर्षों से किनारे रखा गया है। अब तो पार्टी सम्मेलनों में उन्हें टोपी या सफेद साडी और पार्टी झंडों के साथ खड़ा कर दिया जाता है। एक समय था जब कांग्रेस की सदस्यता पाने के लिए सेवादल का प्रशिक्षण अनिवार्य था। इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को भी सेवादल के जरिये कांग्रेस में शामिल कराया ।आज कांग्रेस के ये सिपाही अपनी पार्टी की दयनीय दुर्दशा और अपनी उपेक्षा से निराश और व्यथित हैं।कभी सुचेता कृपलानी महिला कांग्रेस की प्रमुख थी, हाल के वर्षों में महिला कांग्रेस की अध्यक्ष का नाम तक कई कांग्रेसी नहीं बता पाते हैं । चुनाव के समय सेवा दल या महिला कांग्रेस से उम्मीदवार इक्का दुक्का ही बन सकता है और उसकी राय तक नहीं ली जाती । इन परिस्थितियों में भाजपा या उसके सहयोगी दलों का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय बैसाखियों की सहायता लेना ही पड़ेगी ।