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- ललित गर्ग
लालकिले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस समारोह में इस वर्ष का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्र के नाम उद्बोधन अमृतकाल के कालखंड के सन्दर्भ में एक विशाल एवं विराट इतिहास को समेटे हुए नये भारत के नये संकल्पों की सार्थक प्रस्तुति रहा है। भले ही राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले इसे वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं, जबकि यह उद्बोधन भारत की भावी दशा-दिशा रेखांकित करते हुए उसे विश्व गुरु बनाने एवं दुनिया की आर्थिक महाताकत बनाने का आह्वान है। यह शांति का उजाला, समृद्धि का राजपथ, उजाले का भरोसा एवं महाशक्ति बनने का संकल्प है। लेकिन यह सत्य है कि मोदी ने 2024 के आम चुनाव के लिये आशीर्वाद मांगा, अगले वर्ष भी लालकिले से वे ही भाषण देंगे, ऐसा आत्म विश्वास भी व्यक्त किया। प्रधानमंत्री ने न केवल अपने शासनकाल की उपलब्धियों को गिनाया बल्कि उन्होंने अगले पांच वर्ष के लिए भी देश की प्रगति का खाका खींच दिया। उन्होंने 10 वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था को दसवें नम्बर से पांचवें नम्बर तक लाने को उपलब्धि बताते हुए अगले पांच वर्ष में देश को विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का भरोसा भी दिया। निश्चित ही अब तक हुए लालकिले की प्राचीर के उद्बोधनों में सर्वाधिक प्रेरक, संकल्पमय एवं नये भारत-सशक्त भारत की इबारत लिखने वाला उद्बोधन रहा। अंधेरों को चीर कर उजाला की ओर बढ़ते भारत की महान यात्रा के लिये सबके जागने, संकल्पित होने एवं आजादी के अमृतकाल काल को अमृतमय बनाने के लिये दृढ़ मनोबली होने का आह्वान है।
विपक्ष आलोचना के लिए स्वतंत्र है और वह प्रधानमंत्री के भाषण को चुनावी भाषण करार दे सकता है। लेकिन स्वतंत्रता दिवस का उद्बोधन राष्ट्र के नाम ऐसा उद्बोधन होता है जो इस बात विश्लेषण करता है कि हम कहां से कहां तक पहुंच गए। अंतरिक्ष हो या समंदर, धरती हो या आकाश, देश हो या दुनिया आज हर जगह भारत का परचम फहरा रहा है, भारत ने जितनी प्रगति की है उसे देखकर हर देशवासी को भारतीय होने का गर्व हो रहा है तो इसका श्रेय मोदी को दिया जाना कोई अतिश्योक्ति नहीं है, इसकी चर्चा करना राजनीतिक नहीं, भारत की सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक समृद्धि का बखान है। हर भारतवासी मोदी के उद्बोधन से इसलिये भी प्रेरित एवं प्रभावित हुए है कि उन्होंने पहली बार समूचे देश को एक परिवार के रूप में प्रस्तुति देते हुए बहनों और भाइयों तथा मित्रों की जगह देशवासियों को परिवारजन कहकर सम्बोधित किया और 90 मिनट के भाषण में उन्होंने 26 बार परिवारजन शब्द का इस्तेमाल किया।
केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें अपने समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है। परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आये हो। मोदी ने भी देश की जनता में जोश एवं संकल्प जगाते हुए ऐसा ही कुछ कहा जो जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करता है, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं।
भारत तो अतीत से विश्व को परिवार मानता रहा है, तभी उसने वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र उद्घोष किया। मोदी ने अतीत की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए विश्व को अपना परिवार मानने की भावना का परिचय कोरोना काल में दिया ही, जी-20 समूह के ध्येय वाक्य के रूप में भी वसुधैव कुटुंबकम् का चयन किया। हम भारत के लोग विश्व मंगल की कामना की पूर्ति तभी अच्छे से कर सकते हैं जब पहले राष्ट्र मंगल की भावना से ओतप्रोत हों। इसके लिये जो अतीत के उत्तराधिकारी और भविष्य के उत्तरदायी है, उनको दृढ़ मनोबल और नेतृत्व का परिचय देना होगा, पद, पार्टी, पक्ष, प्रतिष्ठा एवं पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर।