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- सोनम लववंशी
पश्चिमी अफ्रीका में स्थित सबसे छोटा देश गाम्बिया आजकल पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। कहने को इस देश की आबादी महज 26 लाख है, लेकिन यहां की संसद में एक ऐसा विधेयक लाया गया है। जो काफी हैरान करने वाला है। इस विधेयक के अनुसार महिलाओं के खतना करने की बात कही गई है। जबकि साल 2015 में ही महिलाओं के खतना पर रोक लगा दी गई थी। लेकिन बीते दिनों 8 नाबालिग बच्चियों का खतना करने को लेकर विवाद इतना गरमाया कि इस मामले में तीन महिलाओं को सजा देनी पड़ी। ऐसे में इस बहस ने पूरे देश के जनमत को दो हिस्सों में बांट दिया। एक पक्ष महिलाओं के खतना करने के पक्ष में खड़ा हो गया। जो समाज, संस्कृति और परम्परा के नाम पर महिलाओं का शोषण करने की वकालत कर रहा है जबकि दूसरा पक्ष महिलाओं का पक्षधर है जो इस प्रथा का विरोध कर रहा है। विडंबना देखिए कि अगर ये विधेयक कानून बन गया तो इस कुप्रथा को अपनाने वाला गाम्बिया दुनिया का पहला देश बन जाएगा और अगर ऐसा होता है तो सौ फीसद मुमकिन है कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इसे मज़हब के नाम पर महिलाओं के शोषण के हथियार के तौर पर देखा जाने लगेगा।
महिलाओं के प्रति पुरुषों की सोच आज भी अधिनायकवादी है। यही वज़ह है कि कहने को तो हम आधुनिक हो चले हैं, लेकिन हमारे समाज में अब भी कुछ रूढ़िवादी परम्पराएं हैं जो सदियों से जस की तस चली आ रही हैं। इनमें महिलाओं का फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) यानी खतना भी शामिल है। वैसे देखा जाए तो परम्पराओं के नाम के पर महिलाओं का शोषण सदियों से होता आया है। हमारे रीति रिवाज़ को आगे बढ़ाने का काम महिलाओं के जिम्मे ही रहा है। ख़ास कर खतना जैसी कुप्रथा के पीछे भले ही धार्मिक चोला पहनाया जाता रहा हो, लेकिन असल मकसद महिलाओं की यौन इच्छाओं पर नियंत्रण करना है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन कि माने तो बच्चियों का कम उम्र में ही खतना कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में एक्सटर्नल प्राइवेट पार्ट के उन हिस्सों को कट किया जाता है, जिनसे यौन इच्छाओं का संबंध होता है। इसके पीछे महिलाओं के शादी के पहले संबंध न बनाने, या फिर यौन सुख से दूर रखने की सोच होती है। विडंबना देखिए कि इस दर्दनाक प्रक्रिया के दौरान न तो बेहोश किया जाता और न ही कोई डॉक्टर निगरानी के लिए मौजूद होता है। इस दर्दनाक प्रक्रिया के दौरान कई मासूम लड़कियों की मौत तक हो जाती है।
हमारा समाज आज भी एक लड़की को वस्तु की तरह ही देखता आया है। लड़की को छोटी सी उम्र से ही ये अहसास दिलाया जाता है कि वे पराया धन है उन्हें शादी करके दूसरा घर बसाना है। यहां तक कि ख़ुद से बड़ी उम्र के पुरूष के लिए सम्भावित दुल्हन के रूप में देखा जाने लगता है। उन्हें शारीरिक पवित्रता की परीक्षा देने के लिए मजबूर किया जाता है। एक लड़की को बचपन से ही पितृसत्तात्मक समाज के ढांचे में फिट रहने की क़वायद शुरू कर दी जाती है। उसके उठने, चलने या बोलने से लेकर शारीरिक ज़रूरत तक को कंट्रोल करने का काम किया जाता है। घर की इज्ज़त मान मर्यादा को जोड़कर बंदिशें लागू कर दी जाती है। गाम्बिया का यह प्रकरण देश दुनिया की महिलाओं के लिए एक सीख लेकर आया है। महिला अधिकारों की बातें करना और उसे हक़ीक़त में लागू करना इन दोनों ही बातों में ज़मीन आसमान का फर्क है। महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए सदियों से संघर्ष करना पड़ा है। आज भी पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर रखना चाहता है तभी तो उन्हें मिले अधिकारों को भी छिनने की कोशिश की जाती रही है।