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पंचायत से संसद तक के चुनाव एक साथ हों

  • रघु ठाकुर
    भारत सरकार की ओर से एक देश एक चुनाव की चर्चा शुरू हुई थी और इसके लिये बड़ी तत्परता के साथ भारत सरकार ने एक कमेटी का भी गठन किया था जिसके अध्यक्ष रामनाथ कोविन्द पूर्व राष्ट्रपति जी हैं। तथा अन्य कई मंत्री और गणमान्य लोग इसके सदस्य बनाये गये थे। इस समिति की रपट अखबारों में 26 अक्टूबर 23 को प्रकाशित हुई है। मुझे खुशी है कि इस रपट में उन मुद्दों को शामिल किया गया है जिन्हें मैं पहले भी उठाता रहा हूॅ। इसीलिये स्पष्ट कर दूॅ कि मैं और मेरी लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी देश के सभी चुनाव पंचायत से लेकर संसद तक जिसमें जनपद, नगर निगम, नगर पालिका, मंडी कमेटी आदि सभी शामिल हैं एक साथ कराये जाने के पक्ष में शुरू से हैं। और चुनाव सुधारों को लेकर मैं लगातार 1982-83 से अपने स्तर और अपनी क्षमता भर सक्रिय रहा हॅू। इस विषय को लेकर मैंने बहुत सारे धरने किये हैं, कई बार लेख लिखे हैं और दिल्ली में भी कई बार विचार गोष्ठियां आयोजित की हैं। जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर भा.ज.पा. के पूर्व अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे, श्री राम बहादुर राय और अनेकों सांसद, पूर्व मंत्री, पत्रकार, बुद्धिजीवी शामिल होते रहे हैं। यहाँ तक की जब 1998 में लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का गठन हुआ तब भी पार्टी के मूल कार्यक्रम और घोषणा पत्र में उसे शामिल किया था। मैं किसी गर्वाेक्ति के लिये यह नहीं लिख रहा हूॅ बल्कि सार्वजनिक स्मृति की याद के लिये लिख रहा हूॅ। अभी कुछ दिन पूर्व राष्ट्रीय सहारा अखबार में ‘‘हस्तक्षेप में इस विषय पर मेरा आलेख भी छपा था। जैसी कि आजकल राजनैतिक परंपरा है कि सरकार की हर बात का विरोध किया जाये, इस परंपरा का निर्वहन देश के प्रतिपक्ष ने बखूबी किया है।
    प्रतिपक्ष की ओर से कुछ दलों द्वारा बनाये गये एक नये गठबंधन, जिसका संक्षिप्त नाम इंडिया (प्ण्छण्क्ण्प्ण्।) रखा गया है उनके द्वारा भी इसका विरोध निम्न आधारों पर किया गया:- 1. एक देश एक चुनाव संघीय ढाँचे के खिलाफ है। 2. पूर्व राष्ट्रपति को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाकर उनका अपमान किया गया है। 3. इंडिया गठबंधन के एक महत्वपूर्ण सदस्य दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कहा है कि वन नेशन वन-इलेक्शन के बजाय ‘‘वन नेशन वन एजुकेशन, वन नेशन वन हेल्थ एजुकेशन’’ होना चाहिये। 4. प्रतिपक्ष गठबंधन समर्थक कुछ बुद्धिजीवी पत्रकारों ने इस आशय के लेख लिखे हैं कि एक चुनाव के होने से कुछ विशेष खर्च नहीं बचेगा और न ही प्रशासन पर कोई असर पड़ेगा। एक मित्र ने तो यह भी लिखा है कि डॉ. लोहिया कहते थे कि ‘‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती’’ और इसलिये पांच वर्ष में एक चुनाव लोहिया के विचार के खिलाफ है। मैं मानता हूॅ कि भारत सरकार इस मुद्दे को अचानक कोई राष्ट्रहित की भावना से लेकर नहीं आई है। बल्कि अपने राजनैतिक लाभ और आगामी चुनाव का मुद्दा बनाने के लिए लाई गई है। बिना शक भाजपा व केन्द्र सरकार की यही नीयत है। परन्तु अपने स्वार्थ की नीयत से अपने चुनाव के लाभ के लिये सरकारें पहले भी ऐसे कदम उठाती रही हैं।
    1930 के दशक से ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी प्रेस की आजादी और बाद में बैंकों के राष्ट्रीयकरण आदि सवालों को उठाती रही तथा सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद इन मुद्दों को लेकर पार्टी द्वारा आंदोलन भी किये गये, जेलंे भरी गई, गिरफ्तारियां दी गई, परन्तु 1970 में अपनी पार्टी के अंदर लड़ने के लिये इंदिरा गाँधी ने प्रेस के मुद्दे का हल और बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी तथा इसके फलस्वरूप 1971 के चुनाव में विशाल बहुमत हासिल कर लिया। कहने का तात्पर्य यही है कि सरकारें अपने चुनावी लाभ के लिये अच्छे मुद्दों को स्वतः विलंबित रखती है और जरूरत पड़ने पर उन्हें बाहर ले आती है। ये बुरी नियत से उठाये गये अच्छे कदम कहे जा सकते हैं। इसी परंपरा का अनुपालन श्री नरेन्द्र मोदी जी कर रहे हैं।

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