भारत माता के महान्ा सपूत डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर अपने विराट व्यक्तित्व और कालजयी कृतित्व के कारण सदैव ही आदर के साथ स्मरण किये जायेंगे। उनका प्रखर पांडित्य, उनकी पारदर्शी प्रामाणिकता, उनकी विलक्षण बागदग्धता, उनकी असाधारण संगठन कुशलता और अन्याय के विरुद्ध लोहा लेने की उनकी वज्र संकल्पबद्धता उन्हें सहज ही एक महान्ा इतिहास पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित कर देती है। डॉ. अम्बेडकर दलित के रूप में जन्में, दलितों के लिए जिए, दलितों के लिये जूझे और अंतिम क्षण तक दलितों का हित चिंतन करते हुए ही निर्वाण को प्राप्त हुए, किन्तु इस आधार पर उन्हें दलित या हरिजन नेता कहना उनके साथ बड़ा अन्याय करना होगा। वे हमारे महान्ा राष्ट्रीय नेताओं में थे और उनकी गणना मार्टिन लूथर किंग की तरह मानव मुक्तिदाता के रूप में की जाएगी। बहुत लोगों को यह बात ज्ञात नहीं है कि जब डॉ. अम्बेडकर को स्वतन्त्र भारत के प्रथम मंत्रिमण्डल में शामिल किया गया तो वे आर्थिक नियोजन का मंत्रालय संभालना चाहते थे। किन्तु उन्हें विधि मंत्रालय मिला। डाॅक्टर की उपाधि प्राप्त करने के लिये डॉ. अम्बेडकर ने जो शोधप्रबन्ध लिखा था उसका विषय था-’द प्राब्लम ऑफ द रूपी’। वह इतना प्रभावशाली था कि सुप्रसिद्ध समाजवादी विचारक श्री हैराल्ड लास्की ने उस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इसका लेखक “बड़ा रेडिकल’’है। अर्थ और विधि संबंधी विषयों पर उनका गहन अध्ययन था। इस संबंध में उनका लेखन उनकी दो पुस्तकों के रुप में सामने आया जो उन्हें सहज ही एक अर्थशास्त्री के रूप में प्रतिष्िठत कर देता है।
यह धारणा भ्रामक है िक डॉ. अम्बेडकर स्वराज की प्राप्ति के बारे में उतने उत्सुक नहीं थे। िजतने दलितों के बारे में। वास्तुिस्थति यह है कि वे सबके िलये स्वराज्य चाहते थे। स्वराज्य सम्पूर्ण हो सबके िलये हो मुट्ठी भर हाथों में केिन्द्रत न हो यह उनकी इच्छा थी उन्हें यह भी लगता था कि जब तक दलित समाज जागृत और संगठित नहीं होता और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को तैयार नहीं होता तब तक स्वराज्य, यदि मिल भी गया तो यह शासक तक सीमित रह जाएगा। एक बार उन्होंने कहा था कि यद्यपि हमारे यहां सामाजिक अन्याय है, िकन्तु यह हमारा आंतरिक प्रश्न है, हम उसका हल िनकालेंगे किन्तु अंग्रेजों को यह कहने का नैतिक अधिकार नहीं है कि जब तक हिन्दू समाज में सामाजिक अन्याय है तब तक हम आपको स्वराज्य कैसे दे सकते हैं। स्पष्टता डॉ. आम्बेडकर दलितों के िहतों की रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जाने के लिये तैयार होते हुए भी, अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का कभी मोहरा नहीं बने। डॉ. आम्बेडकर एक महान राजनीतिज्ञ थे किन्तु उनकी राजनीति सिद्धान्तों से जुड़ी थी। अस्पृश्यता को वे अभिशाप मानते थे और उसके उन्मूलन के लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया, किन्तु उनका संघर्ष सदैव शांतिपूर्ण रहा। कतिपय सवर्णों द्वारा जब महाड़ के सत्याग्रह में कुछ भड़काने वाले कार्य हुए तब भी डॉ. अम्बेडकर ने अपने अनुनायियों को संयम से काम लेने के लिये तैयार किया और उसमें उन्हें सफलता भी मिली। उन्हें अस्पृश्य शब्द स्वीकार नहीं था, किन्तु गांधी जी द्वारा दिए हरिजन शब्द को भी पसन्द नहीं करते थे। उनका कहना था कि हरिजन शब्द में उपकार करने की भावना झलकती है जो उनके द्वारा दी गई स्वाभिमान, स्वाबलम्बन तथा आत्मोद्धार की त्रिसूत्री के विरुद्ध थी। वे ब्राह्मणों विरुद्ध थे। स्वतन्त्र भारत के संविधान के शिल्पकार के रूप में डॉ. अम्बेडकर के योगदान को राजनीति और विधिशास्त्र के विद्यार्थी सदैव ही बड़े गौरव के साथ स्मरण करेंगे। संविधान स्वतन्त्र भारत की आधुनिक स्मृति है । इस दृष्टि से डॉ. अम्बेडकर को आधुनिक मनु कहा जा सकता था। भारत में समय-समय पर स्मृतियां बदलती रहीं। हिन्दू समाज में युग के अनुकूल अपने को परिवर्तित करने की असीम क्षमता है। डॉ. अम्बेडकर उस क्षमता के पूंजीगत प्रतीक थे। लोकतन्त्र में उनकी अटूट निष्ठा, संविधान परिषद में उनके भाषणों से पूरी तरह प्रकट होती है। लोकतन्त्र की मान्यताओं और उसकी परम्पराओं के उल्लंघन से किस तरह के संकट उत्पन्न होंगे, उन्होंने इस बारे में भी स्पष्ट चेतावनियां दी थीं। उन चेतावनियों को आज पढ़कर ऐसा लगता है कि डॉ. अम्बेडकर भविष्य को भेदकर दूरगामी काल को देखने की अपूर्व क्षमता रखते थे। साम्यवाद की विचारधारा और मुस्लिम समाज की मानसिकता के सम्बन्ध में डॉ. अम्बेडकर का विश्लेषण बड़ा सटीक और युक्तिसंगत है। उन्होंने साम्यवाद के दर्शन को अमान्य कर दिया था। मुस्लिम समाज में व्याप्त कट्टरता भी उन्हें पसन्द नहीं थी। वे सच्चे लोकतन्त्रवादी और सुधारवादी थे। अन्याय और अधिनायकवाद पर आधारित उन्हें कोई व्यवस्था मान्य नहीं थी। तिब्बत पर चीन की सार्वप्रभुता स्वीकार करने की नीति पर भारतीयों से उनका तीव्र मतभेद था। वे भारत सहित दक्षिण पूर्व एशिया के बौद्ध धर्म प्रभावित देशों को मिलाकर एक सांस्कृतिक राष्ट्रमण्डल बनाने के पक्ष में थे। वे समाज में धर्म के महत्व को स्वीकार करते थे। उन्हें भारतीयता और भारतीय संस्कृति से गहरा प्रेम था।
जीवन के संध्या काल में जब डॉ. अम्बेडकर ने नई उपासना पद्धति अपनाने का निर्णय किया तो उनकी दृष्टि बौद्ध धर्म पर टिकी। वे भगवान बुद्ध की करूणा के समवेत से बहुत प्रभावित हुए। आज हमारे समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह करुणाविहीन होता जा रहा है। न व्यक्ति के अन्तःकरण में करुणा की धारा है और न समाज के आचार-व्यवहार में ही कहीं करूणा का परिचय मिलता है। बौद्ध धर्म स्वीकार करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने जो भाषण दिया वह उनके भारत प्रेम को पूरी तरह उजागर करता है। उन्होंने कहा-“मैंने एक बार अस्पृश्यता के प्रश्न पर गांधी जी से चर्चा करते हुए उनसे कहा था कि अस्पृश्यता के सवाल पर भले ही मेरे साथ आपके मतभेद हों, जब समय आएगा तो मैं देश को कम से कम क्षति पहुंचाने वाला मार्ग स्वीकार करूंगा। आज बौद्ध धर्म स्वीकार करके मैं देश का अधिक से अधिक हित साधन कर रहा हूं। कारण यह है कि बौद्ध धर्म संस्कृति का भी एक भाग है। इस देश की संस्कृति, इतिहास तथा परम्परा को कोई आघात न लगे, यह सावधानी मैंने बरती है।’ आज जब सारा देश डॉ. अम्बेडकर की जन्म शताब्दी का समारोह बड़े उत्साह से मना रहा है तब उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रेरणा लेकर यह संकल्प करें कि हम स्वतन्त्रता को अमर बनाएंगे, लोकतन्त्र को अक्षुण्य रखेंगे और आर्थिक शोषण तथा सामाजिक अन्याय को समाप्त कर ऐसे भारत की रचना करेंगे जो डॉ. अम्बेडकर के सपने के अनुरूप हो ।
90