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जाति पर आधारित जनगणना की मांग सामाजिक ताना-बाना तोड़ने का कुचक्र

  • रमेश शर्मा
    जाति आधारित जनगणना पर देश में मानो राजनैतिक तूफान उठ आया है। यह तूफान ऐसे समय उठा है जब 2024 के लोकसभा चुनाव की दस्तक हो गई और दूसरी ओर सनातन धर्म को समाप्त करने की खुली घोषणा भी। कुछ राजनैतिक दल इस तूफान को सत्ता तक पहुंचने का मार्ग बनाना चाहते हैं और साथ ही उन तत्वों को सुरक्षा कवच भी देना चाहते हैं जो सनातन धर्म को समाप्त करने पर उतारू हैं।
    यह तूफान अचानक नहीं उठा है। इसे योजना पूर्वक उठाया गया है। इसे उठाने वाले वे क्षेत्रीय दल हैं जिनकी राजनीति का आधार जाति,वर्ग भाषा और क्षेत्र है। ये सभी दल और उनके नेता राजनीति को राष्ट्रनीति से ऊपर मानते हैं । उनका उद्देश्य राष्ट्ररक्षा या समाज सेवा नहीं केवल सत्ता है। अब उनके साथ दिल्ली की सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रही कांग्रेस भी मिल गई है । इन सभी राजनैतिक दलों ने गठबंधन तो बना लिया है फिर भी सफलता संदिग्ध लग रही है। इसका कारण भाजपा के नेतृत्व में काम कर रही नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा किये गये वे काम हैं जिससे देश के भीतर सरकार की साख बढ़ी और दुनियां में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है।
    यह राष्ट्रीय भाव के जागरण और समाज के एकत्व का ही प्रभाव है कि इन साढ़े नौ वर्षों में देश के विकास और साख में गुणात्मक वृद्धि हुई। इससे देश की जनता में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रति अटूट विश्वास उत्पन्न हुआ। इस विश्वास ने मोदी सरकार को 2024 में एक बार फिर सफलता की संभावना स्पष्ट कर दी है। लगता है इसी वातावरण में सेंध लगाने के लिये कुछ राजनैतिक दलों ने समाज में जातीय भाव प्रबल करके सत्ता तक पहुंचने की योजना बनाई है। समाज को बांटकर सत्ता प्राप्त करने का फार्मूला नया नहीं है।
    यह वही योजना है जो भारत पर राज करने के लिये विदेशियों ने बनाई थी। पहले रियासतों बांटकर शासन करने का काम सल्तनतकाल में हुआ। फिर समाज को बांटकर राज्य करने का फार्मूला अंग्रेजों ने बनाया। अंग्रेजों ने अपने फार्मूले को छुपाया भी नहीं था । उन्होंने स्पष्ट कहा था ‘डिवाइड एण्ड रूल’ अर्थात बांटों और राज करो। पहले चर्च को सक्रिय कर अंग्रेजों ने भारत के वनवासी और नगरवासी समाज के बीच खाई बनाई। इसकी शुरुआत 1757 में प्लासी का युद्ध जीता, भारत का सर्वे किया और 1773 से वनक्षेत्रों में सक्रिय हुये। विभाजन की कूटरचित कहानियों का प्रचार हुआ। भारतीय साहित्य और विभाजन का कूटरचित साहित्य प्रचारित किया और वैमनस्य मजबूत रेखा खींची। फिर 1857 की क्रांति के अनुभव के बाद जातीय लकीरें खींचकर ग्राम्य और नगरीय समाज को बांटने की योजना बनी। इसका आधार जाति को बनाया गया जबकि भारत में न तो वनवासी और नगरवासी जीवन में कोई भेद था और न जन्म और जाति के आधार पर। यदि भेद होता तो कालिंजर की राजकुमारी दुर्गावती गौंडवाना में ब्याहती। और न वाल्मीकि जी को ऋषित्व प्राप्त होता। मध्यकाल में रविदास जी और कबीरदास को रामानंद जी शिष्य थे और झाला रानी एवं मीराबाई रविदास जी की शिष्य थीं। वैदिककाल से लेकर आधुनिक काल तक ऐसी परंपराओं ने भारतीय वाड्मय भरा हुआ है।
    1857 की क्रांति में भारतीय समाज की एकजुटता बहुत स्पष्ट थी। इसलिए अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को सुरक्षित करने के लिये जाति आधारित समाज विभाजन का षड्यंत्र किया। एक ओर कुछ लोगों को तैयार करके समाज में परस्पर नफरत फैलाने का काम हुआ और दूसरी ओर 1872 में जाति आधारित जनगणना करने का निर्णय हुआ। वायसराय मैयो के निर्देशन में जातीय आधारित जनगणना के आंकड़े पहली बार 1881 में सामने आये जो 1931 तक चला। 1941 की जनगणना भी जाति आधारित हुई थी पर इसके आकड़े जारी नहीं हुये।
    स्वतंत्रता के बाद अंग्रेज भले चले गये पर अंग्रेजियत बनी रही। यह अंग्रेजियत के बने रहने का ही प्रमाण है कि अंग्रेजों का अंतिम वायसराय भारत का पहला गवर्नर जनरल बना। इसीलिए अंग्रेजों का दिया गया नाम इंडिया हटा और न राजकाज में अंग्रेजी का प्रभुत्व घटा। भारतीयों की जीवन शैली में भी अंग्रेजियत यथावत रही।
    यह अंग्रेजों द्वारा बोये गये बीज का ही प्रतिफल था कि स्वतंत्रता के बाद भी एक समूह ऐसा रहा जो जाति आधारित जनगणना पर जोर देता रहा। स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना 1951 के लिये भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी पर लगभग सभी नीति निर्धारकों ने इस मांग को नकार दिया। इसके लिये गांधीजी के सिद्धांत पर अमल करना उचित समझा गया।

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