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- ललित गर्ग
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता का मुद्दा भारतीय जनजीवन में लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है। देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादी को स्पेशल मैरिज ऐक्ट के तहत मान्यता देने से इनकार कर वाकई ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच का यह फैसला भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराओं, जीवनमूल्यों, संस्कारों, आदर्शों और भारतीयता की जीत है। अदालत ने समलैंगिक कपल को बच्चे गोद लेने का हक भी देने से इंकार किया है। अदालत का फैसला भारतीय जन भावनाओं एवं संस्कारों की पुष्टि भी करता है साथ ही भारतीय मूल्यों, संस्कृति एवं आदर्शों को धुंधलाने एवं आहत करने वाली विदेशी ताकतों को चेताता है जो कि भारत का सामाजिक एवं पारिवारिक चरित्र बिगाड़ने की साजिश रच रहे हैं। निश्चित ही अदालत का यह सराहनीय फैसला भारत की अतीत से चली आ रही विवाह परम्परा एवं संस्कृति को जीवंत रखने एवं मजबूती देने का अनूठा उपक्रम है।
कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि कोर्ट कानून नहीं बना सकता, उनकी व्याख्या कर सकता है। स्पेशल मैरिज ऐक्ट में बदलाव करना संसद का काम है। निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी गौर करने योग्य है। सम्मानित एवं विद्वान न्यायमूर्तियों ने यह स्वीकार किया है कि समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों के एक नागरिक के नाते जो अधिकार हैं वे उन्हें मिलने चाहिए और सामाजिक क्षेत्र में अन्य नागरिकों की तरह उन्हें भी बराबर के मौलिक अधिकार दिये जाने चाहिए परन्तु जहां तक उनके आपस में ही शादी करने का मामला है तो यह विषय संसद में बैठे जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को देखना चाहिए। वैसे जो लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में खड़े थे या अब भी खड़े हैं उन्हें समझना चाहिए कि हिंदू धर्म में शादी के गहरे अर्थ है, विवाह, जिसे शादी भी कहा जाता है, दो विपरीत लिंगी लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है।
विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है। शादी केवल यौन सुख भोगने का एक अवसर नहीं बल्कि वंश परम्परा को आगे बढ़ाने का माध्यम है। भारतीय परम्परा एवं संस्कृति में विवाह द्वारा शारीरिक संबंधों को संयमित रखने, संतति निर्माण करने, उनका उचित पोषण करने, वंश परंपरा को आगे बढ़ाने और अपनी संतति को समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाने जैसे जिम्मेदारी भरे कार्य भी किये जाते हैं। जबकि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिल जाने का अर्थ होगा प्राचीन उच्च एवं आदर्श मूल्यों पर कुठाराघात करना। पश्चिमी देशों से आंधी की तरह देश में प्रवेश कर ही इस तरह की परम्पराओं को लेकर आम जनता में समर्थन बढ़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, इसलिये वस्तुतः देश में समलैंगिक विवाह को लेकर दो तरह की धारणाएं रही हैं। देश में एक बड़ा वर्ग इसे कानूनी और सामाजिक-धार्मिक स्तर पर मान्यता देने का विरोधी रहा है। वह इसलिए भी कि भारतीय समाज में इस तरह की स्वच्छंद, उच्छृंखल एवं स्वैच्छाचारी जीवन शैली की अनुमति कहीं नहीं है। वैसे भी कानून बनाने की जहां भी बात आती है वहां यह अपेक्षा जरूर रहनी चाहिए कि संस्कृति व परम्पराओं की अनदेखी नहीं हो। हां, गिने-चुने लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के पक्षधर भी हो सकते हैं। अब अदालत ने यह मुद्दा संसद के हवाले कर दिया है, लेकिन अहम सवाल यह भी है कि क्या संसद इस दिशा में अपनी तरफ से पहल करके ऐसा कोई कानून बनाएगी? संसद को व्यापक परिवेश में भारतीय परम्परा एवं सांस्कृतिक मूल्यों को देखते हुए आगे का रास्ता बनाना चाहिए।