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- आशुतोष दुबे
भागदौड़ भरी जिंदगी से कुछ समय निकालकर अपनी दिनचर्या पर नजर डालेंगे तो आपका अधिकतम समय मोबाइल फोन के साथ ही बीतता है। व्यक्ति की इसी कार्यशैली का अनुकरण घर-परिवार के बच्चे भी कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि बच्चों का बचपन मोबाइल की गिरफ्त में धीरे-धीरे आता जा रहा है और बालमन परिवर्तित हो जाता है, हमें पता ही नहीं चलता। पहले के समय में बच्चा दादा-दादी, चाचा-चाची या घर के अन्य सदस्यों की ममता भरी गोद में कविता, कहानी सुनते हुए, खेल खेलते हुए, सीखते हुए आगे बढ़ता था। आज वह मोबाइल के सहारे आगे बढ़ रहा है और तो और यदि घर में कोई सदस्य नहीं होता है तो ध्यान करिए पास पड़ोसियों के पास जाकर खेलता कूदता था। उसके लालन पोषण में जो पास-पड़ोस के लोगों का योगदान होता था, जो अब यह नहीं दिखता है।
समय रहते इस गंभीर विषय पर हमें सोचना होगा। सचेत होना होगा। नहीं तो आने वाले समय में परिणाम बहुत ही दुखद होंगे। बालमन बहुत ही कोमल होता है। वह अनुकरण और अनुभव से सीखना प्रारम्भ करता है। इतिहास में भी इस बात का प्रमाण है कि अष्टावक्र ऋ षि और अभिमन्यु ने भी मां के गर्भ से ही सीखना प्रारम्भ कर दिया था। आपाधापी भरी जिंदगी में आज भी बच्चा जब मां के गर्भ में होता है तब भी मां अपने कार्यों और व्यक्तिगत रुचि के कारण सर्वाधिक समय जाने अनजाने मोबाइल के साथ ही व्यतीत करती है। जन्म के बाद भी बच्चों को बहलाना हो या अन्य कोई कारण हो किसी न किसी बहाने से मां या घर के सदस्यों द्वारा बच्चों को मोबाइल पर कुछ न कुछ दिखाया जाता या बच्चों को मोबाइल ही दे दिया जाता है। धीरे-धीरे दिन-महीने-साल बीतते जाते हैं और बच्चा बड़ा होने लगता है, लेकिन वह अपने चारों तरफ यही देखता है कि चाहे घर हो या बाहर, यात्रा के दौरान रेल, बस या कार, शादी समारोह, पर्व और त्योहारों में हर जगह मोबाइल में व्यस्त न केवल छोटे बच्चे हैं अपितु हर एक शख्स है।
बड़े-बुजुर्गों के साथ बैठना, अनुज अग्रजों के साथ प्रेम पूर्वक समय व्यतीत करना, मित्रों के साथ हंसी ठिठौली तो कहीं गुम सी हो गई है। हां लेकिन एक दृश्य प्रायः देखने को मिल ही जाता है वह यह कि घर- परिवार में सभी सदस्य हैं तो, पर सब एकान्तवासी हो गए हैं। एकान्त का एक अर्थ होता है- वैराग्यी। लेकिन यहां एकान्त स्थान इसलिए चाहिए कि हमें कोई परेशानी न हो और हम एकाग्रचित्त होकर मोबाइल की गिरफ्त में आकर पता नहीं किसी अज्ञात आनंद को खोजते रहें। विचारणीय यह भी है कि यदि हम साथ बैठते भी हैं तो बड़ी ही सहजता और सरलता से धीरे-धीरे कहीं भी मोबाइल के लॉक को अनलॉक कर, ओपन कर अपना अमूल्य समय उसको देने लगते हैं, बस यहीं से शुरू होता है, बच्चों का बचपन मोबाइल के गिरफ्त में जाने से। बच्चा भी छोटे से यही सब देख रहा है। बच्चा देख रहा है कि मां-पिता से लेकर सभी सदस्य मोबाइल में उलझे हुए हैं तो वास्तव में जीवन मोबाइल में ही है। मां-पिता को रोकती है, पिता-मां को रोकते हैं पर सुधार किसी में भी परलक्षित नहीं होता है। अपने बचपन के दिनों का स्मरण करें, गर्मियों एवं सर्दियों की छुट्टियों में घर में रिश्तेदारों का तांता लग जाता था। रात के भोजन के बाद इतनी बातें होती थीं कि कहना पड़ता था कि सो जाओ बहुत रात हो गई है पर अब पूरी तरह से दृश्य बदल गया है। अब रात भोजन के बाद सब अपने-अपने मोबाइल में पता नहीं कौन सी आभासी दुनिया में कौन से अज्ञात आनन्द को खोज रहे हैं।