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- रमेश शर्मा
वर्षा और शरद ऋ तुओं की अवधि इन चार माहों में प्रकृति के प्रत्येक आयाम का स्वरूप मुखर होता है । उसे समझना और समझकर एकत्व स्थापित करना सबसे सरल होता है । प्रकृति के परिवर्तन के इस रहस्य को समझकर प्राणी, विशेषकर मनुष्य केलिये शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से सक्षम बनाने की सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं ये चार माह।
इन चार माहों में व्यक्ति को व्यक्तिगत आमोद प्रमोद या उत्सव से तो रोका गया किंतु ऐसे तीज त्योहारों से जोड़ा गया है जिनसे प्रतिभा, क्षमता, दक्षता और मेधा का विकास हो और सामूहिकता बढ़े । इन त्योहारों से मन का संतुलन होता है । मन का संतुलन विवेक को जाग्रत करता है और विवेक जागरण से स्वत्व का साक्षात्कार होता है । स्वत्व के साक्षात्कार से ही व्यक्ति संसार में अपनी मौलिक प्रतिभा की स्थापना कर पाता है । इसी स्थापना ने भारत विश्व गुरु बनाया। स्वत्व का यही भाव उसके स्वाभिमान संपन्न जीवन की प्रगति में सहायक होता है। यदि चतुर्मास की अवधि श्रम साधना और परस्पर संपर्क सहयोग से भरी है। इसका लाभ पूरे वर्ष मिलता है। व्यक्ति निरोग रहता है, सतत सक्रिय रहता है, परिवार समाज में स्नेह सम्मान प्राप्त करता है। मनौवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इन तीज त्योहारों में विविधता है। हाँ व्रत पूजन की बात अवश्य समान है पर लक्ष्य पूर्ति के लिये इस पूजन में विविधता है । जो व्यक्तिगत क्षमता और पारस्परिक संबंधों में आत्मीयता बढ़ाने वाले हैं । जो ऋतु के उतार चढ़ाव के अनुरूप है ।
ये चार माह वर्षा और शरद दो ऋतुओं की अवधि है । पहले वर्षा ऋतु आती है । वर्षा ऋतु में प्राणी ही नहीं अपितु पूरी प्रकृति में अग्नि और आकाश तत्व थोड़ा कमजोर पड़ता है एवं जल तथा पृथ्वी तत्व प्रभावी होता है। इसीलिए वर्षा ऋतु में चारों ओर पानी दिखता है और धरती का कण कण अंकुरित होने लगता है। इसका प्रभाव प्राणी के शरीर पर भी पड़ता है । मनुष्य देह पर भी यह प्रभाव दो प्रकार से दिखाई देता है। एक पाचनतंत्र कमजोर होता है और दूसरा भावनाओं का अतिरेक होता है । पाचन तंत्र के कमजोर होने से शरीर में भारीपन आता है वजन बढ़ता है । भावनाओं के अतिरेक से मन में भावुकता और चंचलता बढ़ती है। मन में तरंगें उठती है, यहाँ वहाँ दौड़ता ।
बरसात में मनोरंजन करने या घर बैठने का, भजिया खाने का मन होता है । प्राणियों में मिलन का मन होता है । भारतीय साहित्य में श्रृंगार रस के जो गीत रचे गए हैं उन सब में वर्षा ऋतु या सावन का चित्रण आता है । मिलन और विरह के गीत भरे पड़े हैं। इसका कारण इस ऋतु में पंच तत्वों के अनुपात का बदलाव है। इस ऋतु में देह के भीतर की कोशिकाओं में अनेक ऐसे वायरस जन्म लेते हैं जो तन और मन दोनों पर प्रभाव डालतें हैं। मन में उमंग उठती है और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव आता है। त्वचा पर फंगस जैसा भी कुछ होने लगता है। यह पृथ्वी तत्व की प्रबलता का प्रभाव है जिससे अतिरिक्त जीव जन्म लेते हैं वे भले फंगस के ही क्यों न हों। वहीं जल तत्व की प्रबलता से मन में तरंग उठतीं हैं। इसलिए चतुर्मास में त्योहारों के माध्यम से तन, मन और जीवन को संतुलित करने का चिंतन हुआ । जिससे ऋतु की विशेषता का लाभ शरीर की संपुष्टता बढ़ाने और मन की तरंगों को सार्थक दिशा में गति देने का मार्ग खोजा गया।
इसीलिए चतुर्मास के आरंभ में सबसे पहला और महत्वपूर्ण बड़ा त्योहार गुरु पूर्णिमा का है। यह केवल गुरु मिलन या गुरु स्मरण का दिन नहीं है अपितु गुरु से ज्ञान लेने का दिन है। गुरु ज्ञान से मन शांत होता है, संतुलित होता है, स्वयं का स्वयं से परिचय होता है। एक बार यदि स्वयं का स्वयं से परिचय की यात्रा आरंभ हो जाये तो बाहर की अनेक समस्याओं से सहज बचाव हो जाता है। इससे मन में सात्विक भाव आते हैं, यदि मन में सकारात्मक भाव उत्पन्न होंगे, मन का आवेग शाँत होगा तो वह मचलेगा नहीं अपितु निर्माण और सकारात्मक कार्यों की ओर प्रेरित होगा। यदि व्यक्ति सद् मार्गदर्शन द्वारा व्यक्ति समेष्ठि से जुड़ गया तो वह पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब मानेगा ।
इसके तुरन्त बाद श्रावण मास आरंभ होता है जिसमें अन्य उत्सवों के साथ पवित्र नदियों का जल लाकर भगवान शिव की अर्चना का विधान है । जीवन और समाज समृद्धि के तीन प्रमुख मार्ग हैं। एक कृषि, दूसरा व्यापार और तीसरा शिल्प कला । आज यद्यपि नौकरी भी एक और मार्ग है पर भारत की प्राचीन परंपरा में नौकरी का कोई प्रावधान न था। हर व्यक्ति अपने कार्य का स्वयं स्वामी होता है। श्रावण मास में बरसात की अधिकता से ये समाज समृद्धि के ये तीनों कार्य थोड़े शिथिल पड़ जाते हैं । जब व्यक्ति के हाथ में काम कम होगा श्रम साधना से दूर होगा तो उसे आलस्य आयेगा। इसलिये व्यक्ति सकारात्मक रहे, सक्रिय रहे और श्रम साधना में लगा रहे इसलिये उसे पवित्र नदियों से जल लाकर भगवान शिव की अर्चना करने का प्रावधान जोड़ा गया। यह जल पैदल चलकर लाना होता है, स्वयं उठाकर लाना होता है। इस परंपरा और प्रावधान को हम काँवड़ यात्रा के रूप में आज भी देखते हैं।
यदि मनुष्य वर्षा ऋ तु में घर में बैठकर भजिये पुड़ी खाने लगेगा तो पाचन तंत्र बिगड़ेगा, शरीर की अन्य बीमारियों को भी आमंत्रण देगा । इससे बचने के लिये श्रम और संयम दोनों आवश्यक हैं । इसलिए पूरे श्रावण मास को शिव आराधना से जोड़ा गया । यह शिव आराधना एक स्थान पर बैठकर नहीं अपितु स्वयं नदी जल लाकर चढ़ाने की श्रम साधना से जोड़ा और घर के भीतर रहने वाली महिलाओं को व्रत उपवास से जोड़ा । श्रावण माह में छोटे बड़े लगभग बीस व्रत उपवास आते हैं।